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________________ चतुर्दश परिच्छेद [ ३५१ अर्थ-जैसें कोशकार जो कुसेरा सो अपनी लीला करि आपहीकौं बांध है तैसें यह जीव भोगनिकी बांछाकरि आप ही आपकौं बांधै है । कैसी है भोगनिकी बांछा कर्मबीज करि उपजी होदय जनित है, स्वभावतें नाहीं। वहुरि विशेषपनें निंद्य हैं अर भयानक मृत्युके देनेमैं प्रवीण हैं अनन्तवार मरण करावें है ऐसी है ॥६७।। चेतसीति सततं वितन्वतो, लोकरूपमुपजायते परा। राक्षसीत इव संसृतेः स्फुटं, धर्मकर्मजननी विरक्तता ॥६॥ अर्थ-या प्रकार जो लोकका स्वरूप चित्तविर्षे विचार है ताकै धर्म कर्मकी उपजावनेवाली संसारतें परम उदासीनता प्रगट उपजै है, जैसे राक्षसीतें भय उपगै तैसै संसारतें भय उपजै है ॥६॥ या प्रकार लोकभावना कहीं। आगे-बोधिदुर्लभभावनाकौं कहै हैं:देशजातिकुलरूपकल्पता, जीवितव्यवलवीर्यसम्पदः । देशनाग्रहणबुद्धिधारणाः, संति देहिनिवहस्य दुर्लभाः ॥६६॥ अर्थ-मुक्ति होने योग्य भरतादिक्षेत्र अर क्षत्रियादि जाति अर कुल, बहुरि सुन्दर रूप अर नीरोगता। बहरि दीर्घ आयु अर शरीर सम्बन्धी बल अर आत्मा सम्बन्धी वीर्य अर सम्पदा अर जिनवाणीका उपदेश अर ताकै जाननेकी बुद्धि । बहुरि जानकरि ताकी धारणा राखनी यह वस्तु जीवनिके समूहकौं पावना दुर्लभ है बड़े भाग्यके उदयतें मिलै है ॥६६॥ हन्त ! तासु सुखदानकोविदा, ज्ञानदर्शनचरित्रसंगतिः । लभ्यते तनुमताऽतिकृच्छतः, कामिनीष्विव कृतज्ञता सती ॥७॥ अर्थ-आचार्य खेदकरि कहैं हैं-अहो तिन पूर्वोक्त सामग्रीनि विर्षे भी सुखदेनमैं प्रवीण ऐसी जो ज्ञानदर्शन चारित्रकी संगति सो जीवकरि कष्टतै पाइए है । जैसैं स्त्री नि वि सुन्दर कृतज्ञता कष्टतें पाइए तैसें पूर्वोक्त सामग्रीनिमैं बोध पावना दुर्लभ है ।।७०॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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