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________________ चतुर्दश परिच्छेद [३४६ भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञानादिकतें जीवका मलिन भाव मिट तब सिद्धपदकौं प्राप्त होय तातें सम्यग्दर्शनादि आराधना योग्य है ॥६०॥ ऐसें निर्जरा भावना कही । आगें लोकभावनाकौं कहै हैंव्योममध्यगमकृत्रिमं स्थिरं, लोकमंगिनिवहेन संकुलम् । सप्तरज्जुधनसम्मितं जिना, वर्णयन्ति पवमानवेष्टितम् ॥६१॥ अर्थ-जिनराज हैं ते लोककौं ऐसा वर्णन करै हैं, कैसा है लोक अनंतानंत जो आकाश ताके मध्य प्राप्त है, बहुरि काहूका कर्या भया नाहीं। बहुरि जीवनिके समूहनिकरि भर्या है । बहुरि सात राजूका धन जो तीनसै तेतालीस राजू ता प्रमाण है । बहुरि बातवलयनि करि वेष्टित है, ऐसा है ॥६१॥ जन्ममृत्युकलितेन जन्तुना, कर्मवैरिवशतिना सता । यो न यत्र बहुशो विगाहितो, विद्यते न विषयः स कश्चन ॥६२॥ अर्थ-ता लोक वि सो क्षेत्र नाहीं जो जीवनें बहुत बार नाहीं अवगाया। कैसा है जीव जन्म मरणकरि व्याप्त है। बहुरि कर्म वैरीके वशवर्ती हैं अर अस्तित्वरूप है । भावार्थ-तीनसै तेतालीस राजू मैं ऐसा क्षेत्र नाहीं जहां यह जीव न उपज्यां अर न मर्या ऐसा वैराग्यके अर्थि विचारना ॥६२॥ भूरिशोऽत्र सुखदुःखदायिनीः, भूतिजातिगतियोनिसम्पदाः । यत्रितो विविधकर्मश खलः, का न निर्विशति चेतनश्चिरम् ॥६३॥ अर्थ-नाना प्रकार कर्मरूप सांकलनि करि बंध्या यह जीव है सो बारबार सुखदुःखकी देनेवाली विभूति जाति देवादिक गति योनि सम्पदा कौनसीकौं प्राप्त न होय है ? सर्वहीकौं प्राप्त होय है ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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