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________________ ३४४ ] श्री अमितगति श्रावकाचार . अर्थ-जीवके नाना प्रकार जे चित्तके परिणाम तिनकरि उपजे जे सुख दुःख करनेकी विधि विषं समर्थ नाना प्रकार बन्धके अनुभागभेद तिन करि यह जीव भयंकर संसार वन विर्षे बहुत काल भ्रमाइए है। भावार्थ-कर्मनिका तीव्र मंद अनुभाग तीव्र मंद कषायतें होय है ताकरि जीव नरकादि पर्याय निमैं भ्रम है ॥४४॥ गृह्णाति कर्म सुखदं शुभयोगवृत्या, दुःखप्रदायि तु यतोऽशुभयोगवृत्या । प्राद्या सुखाथिभिरतः सततं विधेया, हेया परा प्रचुरकष्टनिधानभूता ॥४५॥ अर्थ-जातें शुभ योगकी परणति करि जीव सुखदायक कर्मका ग्रहण कर है, बहुरि अशुभ योगकी परिणति करि दुःखदायक कर्मका ग्रहण करै है, इस कारणतें सुखके अर्थी जे जीव तिनकरि आदिकी जो शुभ परणति सो निरन्तर करनी योग्य हैं । बहुरि प्रचुर दुःखके निधान समान जो अशुभ योगकी परणति सो त्यागनी योग्य है ॥४५॥ । एकप्रकारमपि योगवशादुपेतं, कुर्वति कर्म विविधं विविधाः कषायाः । एकस्यभावमुपगस्य जलं घनेभ्यः , प्राप्य प्रदेशमुपयाति न कि विभेदम ॥४६॥ . पर्ण-योगनिके वशकरि एक प्रकार ग्रहण किया भी कर्म कषाय नाना प्रकार करै है। भावार्थ-योगद्वार समयप्रबद्ध ग्रहण कियौ सो तो एक प्रकार ही है परन्तु जैसा तीव्र मंद कषाय होय तैसा ही नाना प्रकार तीव्र मंद शक्ति लिये होय है । जैसें मेघनितें जल है सो एक स्वभावकौं प्राप्त होयके निंब आदि प्रदेशकौं प्राप्त होय करि कहा विचित्र भेदकौं नाहीं प्राप्त होय है, होय ही है ॥४६॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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