SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ २] श्री अमितगति श्रावकाचार.. वि अति हर्ष, अर रोगादि ल्लेश करि सहित जीव हैं तिन विर्षे करुणाभाव, अर विपरीत है श्रद्धा जाकी ऐसे पुरुष विर्षे माध्यस्थ्यभाव कहिए विपरीत पुरुषकौं देखक विचारना जो यह उपदेश योग्य नाहीं या रागद्वेष कहिकौं करना, या प्रकार चार भावना ज्ञानवान करि मोक्षके अर्थि सदा करना योग्य हैं ॥६६ अनश्वरश्रीप्रतिवन्धकेषु, प्रभूतदोषोपचितेषु नित्यम् । विरागभावः सुधिया विधेयो, भवांगभोगेषु विनश्वरेषु ॥१०॥ अर्थ-ज्ञानी जीवकरि संसार देह भोगनिविर्षे सदा वैराग्यभाव करना योग्य है, कैसे हैं संसार देह भोग अविनाशी लक्ष्मीके रोकनेवाले हैं बहुरि अनेक दोषनिकरि युक्त हैं, विनाशीक हैं ॥१०॥ श्रावकधर्म भजति विशिष्टं, योऽनधचित्तोऽमितगति हष्टम् । गच्छति सौख्यं विगलितकष्टं, स क्षपयित्वा सकलमनिष्टम् ॥१०१॥ अर्थ-जो पुरुष अमितगति कहिए अनन्त है, ज्ञान जाका ऐसा जो जिनराज तानें दिखाया अथवा अमितगति आचार्यने दिखाया जो श्रावकका धर्म ताहि सेवै है सो पुरुष सब अनिष्टनिका नाश करके नाहीं है कष्ट जहां ऐसा सुखरूप जो मोक्ष ताहि प्राप्त होय है, कैसा है धर्म विशिष्ट कहिए अन्य धर्मनितें न्यारा है लक्षण जाका ऐसा है, बहुरि कैसा है सो पुरुष पाप रहित है चित्त जाका ऐसा है ॥१०१॥ सवैया । श्रावक धर्म कह्यो जिनराज, यथाविधि ताहि अखंडित धारै । सो अतिनिर्मलचित्त सुधी, भवकष्ट अनिष्टसमह निबारै॥ स्वर्गनिके सुख भोगि तथा, नर होय महाव्रत भाव सम्हारै । आतम ध्याय विभाव नसाय, महासुखसागर धाम सिधार ॥ ऐसे श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविर्षे __ त्रयोदशमा परिच्छेद समाप्त भया।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy