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________________ त्रयोदश परिच्छेद श्रायांतं ये तपोराशि, विलोक्यपि न कुर्वते । अभ्युत्थानासनत्यागो, नैभ्यः संत्यधमाः परे ॥३६॥ अर्थ - जो पुरुष आवता जो तपका समूह मुनि ताहि देख कर भी 'उठबैठना अर आसनत्यागना रूप विनय नाहीं करें हैं इनतें सिवाय और नीच कोऊ नाहीं ॥ ३६ ॥ यत्र यत्र विलोक्य ते, संयतायतमानसाः । तत्र तत्र प्रणतव्या, विनयोद्यतमानसैः ॥३७॥ अर्थ-यत्न सहित है मन जिनका ऐसे संयमी मुनि जहां जहां देखिए तहां तहां बिनय मैं उद्यमी है मन जिनका ऐसे पुरुषनि करि नमस्कार करना योग्य है ॥ ३७॥ शय्योपवेशनस्थानगमनादीनि सर्वदा । विधातव्यानि नीचानि संयताराधनापरैः ॥ ३८ ॥ [ ३१७ अर्थ - संयमीनकी आराधना विषें तत्पर जे पुरुष तिनकरि सोवनेकी शय्या अर बैठना अर खड़े रहना गमन करना इत्यायिक सदाकाल नीचे करना योग्य है । भावार्थ - जहां महन्त पुरुष विराजे होय ता स्थानतें शय्यादिक नीचे स्थान करना ऊँची जगह न करना, ऐसा जानना ||३८|| पुण्यवन्तो वयं येषामाज्ञां यच्छंति योगिनः । मन्यमानैरिति प्राज्ञैः कर्तव्यं यतिभाषितम् ॥ ३६ ॥ अर्थ - हम पुण्यवन्त हैं जिन योगीश्वर आज्ञा करें हैं ऐसे मानते जे पंडित तिनकरि यतीनका कह्या करना योग्य है । भावार्थ - यतीश्वर आज्ञा करै सो सुबुद्धीनकौं करना योग्य है, अपने मन मैं ऐसी मानना जो हम धन्य हैं जिनमें गुरुनकी आज्ञा भई ऐसें आज्ञा मैं हर्ष करना, ऐसा जानना ||३६|| निष्ठीवनमवष्टंभं, जंभणं गात्रभंजनम् । असत्यभाषणं नर्म, हास्य पादप्रसारणम् ॥४०॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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