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________________ द्वादशम परिच्छेद -[३०६ अर्थ-रच्या है संवर जानें ऐसा जो पुरुष ताकै उपवासरूपी जो उग्र सूर्य है अतिबड़ा जो ज्ञानावरणादि जालरूप जल ताहि बलात्कारते क्षेप है सोख है, कैसा है कर्म जालरूप जल संसार-वृक्षका करनेवाला है अर नानाप्रकार रागादि भावरूप मेघनिके समूहतें उपज्या है बहुरि समस्त संसारी जीवरूप सरोवरविषभ र्या है। भावार्थ-संवर सहित उपवासतें कर्मनिकी निर्जरा अधिक होय है, ऐसा जानना ॥१३७॥ जनयति यद्विधूय विपदं रभसोपचिति, घटयति संपदं त्रिदशमानववर्गमताम् । विधिविहितस्य तस्य पुरुषः श्रुतकेवलिनो, वदति फलं न कोऽप्यनशनस्य परो भुवने ॥१३८॥ अर्थ-जो उपवास संचयरूप भई जो विपदा ताहि नाश करि बलात्कारतें देवमनुष्यके समूहकरि मानित संपदाकौं रचै है, ऐसा विधिपूर्वक कर्या जो उपवास ताके फलकौं केवली कहैहैं और पुरुष लोकविर्षे न कहै है ॥१३॥ रचयति यस्त्रिधा व्रतमिदं महितं महितेरमिगतगतिश्चतुर्विधमनन्यमनाः पुरुषः। भवशतसन्चितं कलिलमेष निहत्य घनं, शिवपदमेति शाश्वतमपास्तसमस्तमलम् ॥१३६॥ अर्थ-जो पुरुष यहु च्यार प्रकार व्रतकों मन वचन काय करि करै है सो अनेक जन्म करि संचय किया जो सघन पाप ताहि नाश करि समस्त कर्ममलरहित शास्वता जो शिवपद ताहि प्राप्त होय है, कैसा है पूजनीक पुरुषनिकरि पूजनीक है, बहुरि कैसा है वह पुरुष अपार है ज्ञान जाका अर नाहीं है व्रतसिवाय अन्यविर्षे मन जाका, ऐसा है ॥१३॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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