________________
२६६ ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-शील रत्नको रक्षा करते जो पुरुष ताकरि सो वेश्या मन वचन काय करि सेवनी योग्य नाहीं जातें हिंसकपनेकौं जानता संता कोई भी पुरुष है सो व्याघ्रीकौं नाहीं स्पर्शी है ॥७६॥
आगे-परस्त्री सेवनका निषेध करै हैं;तिरश्ची मानुषी देवी निर्जीवा च नितंबिनी।
परकीबा न भोक्तव्या शीलरत्नवता त्रिधा ॥७७॥
अर्थ-तिर्यंचणी मनुष्यणी देवी ये तो चेतन अर अचेतन ऐसी काष्ठ पाषाणादिककी ऐसी च्यार प्रकार परस्त्री है सो शीलरत्न सहित पुरुष करि मन वचन काय करि सेवनी योग्य नाहीं ॥७७॥
जीवितं हरते रामा परकीया निषेधिता । प्लोषते सर्पिणो दृष्टा स्पृष्टा हष्टिविषा न किम् ॥७७॥
अर्थ--परस्त्री सेई भई जीवितव्यकौं हरै हैं जैसें जाके देखे ही विष चढे ऐसी दुष्ट सर्पिणी स्पर्शी सन्ती कहां न जलावै, अपितु जलावै ही है ॥७॥
यच्चेह लौकिकं दुःखं परनारीनिषेवने । तत्प्रसानं मतं प्राजनरकं - दारुणं फलम् ॥७॥
अर्थ-जो परनारी सेवने विर्षे इस लोक सम्बन्धी दुःख है सो तो ताका फल है अर नरक सम्बन्धी भयानक दुःख हैं सो ताका फल पंडितनिने कह्या है ॥७९॥
स्वजनैः रक्षमाणायास्तस्या लाभोऽतिदुष्करः ।
तापस्तु चित्यमानायां सर्वांगीणो निरन्तरः ॥१०॥
अर्थ-स्वजननिकरि रक्षा करी भई परस्त्री है ताका लाभ अति दुष्कर है। बहुरि ताका चितवन करै सन्ते निरन्तर सर्व अंगमैं ताप उपजै है ॥८॥
. ताप