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________________ २७६ ] श्री अमितगति श्रावकाचार वचननि करि है सो यह निश्चय करि पावनके उठावने धरने करि आकाशके अन्तकौं जाय है। भावार्थ-तिन देवनिका सुख वचनतें न कह्या जाय है, ऐसा जानना ॥११॥ नवयौवनसम्पन्ना दिव्यभूषणभूषिताः । ते वरेण्याद्यसंस्थाना जायन्तेऽन्तर्मुहूर्ततः ॥११६॥ मर्थ- नवयौवनसहित अर दिव्य आभूषणनि करि भूषित अर श्रेष्ठ आदिका समचतुरस्त्र है संस्थान जिनका ऐसे अन्तर्मुहूर्त में उपजे हैं ॥११६॥ तेषां खेदमलस्वेदजरारोगादिवंजिताः । जायते भास्कराकाराः स्फाटिका इव विग्रहाः ॥११७॥ अर्थ-तिन देवनिके खेद मल पसेव जरा रोग इत्यादि करि ददीप्यमान हैं आकार जिनके मानौं स्फाटिकमणिके है ऐसे शरीर उपज हैं ॥११७॥ राजत हृदये तेषां हारयष्टिविनिर्मला । निसर्गसम्भवा मूर्ती सम्यग्दृष्टिरिव स्थिता ॥११७॥ अर्थ-तिन देवनिके हृदयविर्षे विशेष निर्मल हारकी लडी सोहै है, मानौं स्वभावकरि उपजी मूर्तिवन्त सम्यग्दृष्टी तिष्ठी है ॥११८॥ मुकुटो मस्तके तेषामुद्योतित दिगन्तरः । निषधानाभिवादित्यस्तमोध्वंसीय भासते ॥११॥ अर्थ-जैसे निषधाचलनके ऊपरि अन्धकारका नाश करनेवाला सूर्य सोहै हैं तैसें तिन देवनिके मस्तकविर्षे उद्योतरूप किया है दिशानका अन्तर जानें ऐसा मुकुट सोहै है ॥११॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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