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________________ १४ ] श्री अमितगति श्रावकाचार संसारमुद्भूतकषायदोषं, विलंघयंते गुरुणा विना ये । विभीमनक्रादिगणं ध्रुवं ते, वाधि तितीर्षति विना तरंडम् ॥४५ ॥ अर्थ - जे पुरुष उपजे हैं कषायरूप दोस जातें ऐसा जो संसार समुद्र ताहि श्रीगुरु विना अतिशयकरि उलंधे चाहे हैं, ते निश्चयकरि महाभयानक है । नत्रादिकके समूह जा विषें ऐसे समुद्रकू नाव विना तैरना चाहे हैं ||४५ ॥ येषां प्रसादेन मन करींद:, क्षणेन वश्यो भवतीह दुष्टः । भजन्ति ये तान् गुणिनो न भक्त्या, तेभ्यः कृतघ्ना न परे भवंति । ४६ । अर्थ - इहां लोकविषं जिनके प्रसादकरि मनरूप गजेन्द्र क्षणमात्र करि वश होय है, तिन गुणवान गुरुनिकौं जे भक्तिसहित न सेव हैं तिनतें सिवाय और कृतघ्नी कोन है ? ॥ ४६ ॥ कृतोपकारो गुरुणा मनुष्यः, प्रपद्यते धर्मपरायणत्वम् । चामीकरस्येव सुवर्णभावं, सुवर्णकारेण विशारदेन ॥४७॥ अर्थ - गुरुनें कर्या है उपकार जापै ऐसा जो मनुष्य है सो धर्मविषे परायणपनांकौं प्राप्त होय है । जैसें चतुर सुनार करि सुवर्णकें भले वर्णका भाव होय तैसें । भावार्थ -- जैसें सुनारकी संगति करि सोना सोलहवानीका होय है तैसें श्रीगुरुके प्रसाद करि जीव धर्मकों प्राप्त होय है ऐसा जानना ॥४७॥ विवर्त्त मानो व्रततो गुरुभ्यो, न शक्यते वारयितुं परेण । व्यकवादी व्यवहारकायें, साक्षीकृतैरेव नियभ्यते हि ॥ ४८ ॥ अर्थ - व्रततें पराङ्मुख होता जो पुरुष सो गुरु विना और करि रोकनेकू ँ समर्थ न हूजिये है । जैसें व्यवहारकायं विषे झूठ बोलनेवाला पुरुष 'जे साक्षी करें हैं तिन करि ही निश्चयकरि रोकिए है तैसें ॥ ४८ ॥ दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली, शीलेन भार्या सरसी जलेन ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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