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________________ श्री अमितगति श्रावकाचार प्रीति सहित तिष्ठे हैं तहां वैरभाव कैसे कहिए, अपितु नाहीं कहिए ऐसा जानना ॥ ८३ ॥ २७० ] कुपात्रदानतो याति कुत्सितां भोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते ॥८४॥ अर्थ - कुपात्रके दानतै जीव कुभोगभूमिकौं प्राप्त होय है, इहां दृष्टांत हैं हैं - खोटा क्षेत्रविषं बीज बोये संते सुक्षेत्रके फलकौं कौन प्राप्त होय है, अपितु कोई न होय है ॥ ८४॥ तरद्वीपजाः संति ये नरा म्लेच्छखंडजाः । कुपात्रदानतः सर्वे ते भवंति यथायथम् ॥ ८५ ॥ अर्थ-जे अन्तरद्वीप कहिए लवणसमुद्रविषै वा कालोद समुद्रविषै छयानवें कुभोगभूमिके टापू परे हैं तिनविषै उपजे मनुष्य हैं अर म्लेच्छ खण्डविषै उपजे मनुष्य हैं ते सर्व कुपात्रदानतें यथायोग्य होय हैं ॥ ८५ ॥ वर्य मध्यजघन्यासु तिर्यंच: संति भूमिषु । कुपात्रदानवृक्षोत्थं भजते तेऽखिलाः फलम् ॥ ८६ ॥ अर्थ – उत्तम मध्यम जघन्य भोगभूमिन विषे जे तिर्यंच हैं ते सर्व - कुपात्र दानरूप वृक्षतें उपज्या जो फल ताहि खाय हैं ॥ ८६ ॥ दासीदास द्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये । कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ॥८७॥ अर्थ - इहां आर्यखण्डमैं जे दासीदास हाथी म्लेच्छ कुत्ता इत्यादि भगवंत जीव हैं तिनकौं जो भोगे है सो प्रगटपने कुपात्र दानतें है, ऐसा जानना ॥८७॥ दृश्यं ते नीचजातीनां ये भोगा भोगिनामिह । सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयं ते महोदयाः ॥८८॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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