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________________ नवम परिच्छेद यश्चैवाहारमात्रेण शरीरं रक्ष्यते नृणाम् । चामीकरस्य कोटीभिर्वीभिरपि नो तथा ॥ ६८ ॥ अर्थ – जैसी आहारमात्र करि मनुष्यनिके शरीरकी रक्षा करिए है तैसी बहुत कोटि सुवर्ण करि भी रक्षा न करिए है ॥ ६८ ॥ क्षिप्रं प्रकाश्यते सर्व माहारेण कलेवरम् । नभो दिवाकरेणैव, तमोजालावगुंठितम् ॥६६॥ अर्थ – जैसैं अन्धकार करि व्याप्त जो आकाश सो सूर्यकरि प्रकाशिये है तैसे सर्व शरीर आहारकरि शीघ्र प्रकाशिए है ॥ ६६ ॥ न शक्नोति तपः कत्त, सरोगः संयतो यतः । ततो रोगापहारार्थं देयं प्रासुकमौषधम् ॥ १०० ॥ , [ २२७ अर्थ - जातें रोग सहित संयमी है सो तप करनेकौं समर्थ न होय है ता रोग दूर करनेके अर्थ प्रासुक औषधि देना योग्य है ॥ १०० ॥ न देहेन विना धर्मो न धर्मेण विना सुखम् । , यतो तो देहरक्षार्थं, भैषज्यं दीयते यतेः ॥१०१॥ अर्थ - जातें देह बिना धर्मं नाहीं अर धर्म विना सुख नाहीं -- जातें देहकी रक्षाके अर्थ साधुकों औषध देना योग्य है ।। १०१ ॥ शरीरं संयमाधारं रक्षणीयं तपस्विनाम् । प्रासुकैरौषधैः पुंसा, यत्नतो मुक्तिकांक्षिणा ॥ १०२ ॥ अर्थ – संयमका आधार जो तपस्वीनका शरीर सो मुक्तिका वांछक जो पुरुष ताकरि यत्नतें प्रासुक औषधनि करि रक्षा करनी योग्य है ।। १०२ ॥ आगे शास्त्रदानका वर्णन करें हैं । विवेको जन्यते येन संयमो येन पाल्यते । धर्मः प्रकाश्यते येन मोहो येन विहन्यते ॥ १०३ ॥ मनो नियम्यते येन रागो येन निकृत्यते । तहय भव्यजीवानां शास्त्रं निर्धूतकल्पषम् ॥ १०४ ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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