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________________ नवम परिच्छेद [ २०७ उपजे सन्तै जो किसी” भी क्रोध न करें है ताहि आचार्य क्षमावान कहैं हैं ॥१०॥ आगें उत्तम मध्यम जघन्य दातानिका स्वरूप कहैं हैं :--- सर्वैरलंकृतो वर्यो, जघन्यो वजितो गुणैः । मध्यमोऽनेकवाऽवाचि, दाता दानविचक्षणः ॥११॥ अर्थ--पूर्वोक्त भक्ति तुष्टि आदि गुण वा आगै क हैंगे तिन सर्व गुणनि करि भूषित है सो तो उत्कृष्ट दाता है अर तिन गुणनि करि रहित है सो जघन्य दाता है । बहुरि दान विर्षे विचक्षण जे पुरुष तिन करि मध्यमदाता अनेक प्रकार कह या है ॥११॥ आगै दाताका विशेष गुण कहै हैं :विनीतो धार्मिकः सेव्यस्तत्कालक्रमवेदकः । जिनेशशासनाभिज्ञो भोगनिस्पृहमानसः ॥१२॥ दयालुः सर्वजीवानां रागद्वेषादिवजितः । संसारासारतावेदी समदर्शी महोद्यमः ॥१३॥ परीषहसहो धीरो निजिताक्षो विमत्सरः । वरात्मसमयाभिज्ञः प्रियवादी निरुत्सुका ॥१४॥ वासितो वतिनां पतैः परासाधारणैर्गुणैः । लोकलोकोत्तराचारविचारी संघवत्सलः ॥१५॥ आस्तिको निरहंकारो वैयावृत्यपरायणः । सम्यकालंकृतो दाता जायते भुवनोत्तमः ॥१६॥ प्रर्थ-विनयवान होय, धर्मात्मा होय, क्रूरतादिक के अभावतें औरन करि सेवने योग्य होय, तत्काल क्रमका जाननेवाला होय । भावार्थ-जिस कालमैं जैसी वस्तु आदि चाहिये तैसा जानता होय; अर जिनेन्द्रके उपदेशका ज्ञाता होय, बहुरि भोगनि विर्षे वांछा रहित चित्त जाका ऐसा होय ॥१२॥ सर्व जीवनि पर दया सहित होय,
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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