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________________ षष्ठम परिच्छेद [१३३ यस्मानित्यानित्यः काय वियोगे निपीड्यते जीवः । तस्माद्य क्ता हिंसा प्रचुरकलिलबन्धवृद्धिकरी ॥२७॥ अर्थ-जातें कथंचित् नित्य कंथचित अनित्य स्वरूप जीव है सो शरीर के वियोग होतसन्तै पीडिए है दुखी होय है, तातै प्रचुर पापको बन्ध करनेवाली शरीरके हिंसायुक्त है। भावार्थ-स्याद्वाद करि नित्य वा अनित्य स्वरूप जीव मान है तिनहीकै हिंसाका ज्ञान होय हैं, तब तिनहीकै त्याग होय है, एकातीकै हिंसाका जाने बिना त्याग नांही। ऐसा इहां आशय जानना ॥ २८ ॥ देवातिथिमन्त्रौषधपित्रादिनिमित्ततोऽपि सम्पन्ना । हिंसा धत्त नरके किं पुनरिह नान्यथा विहिता ॥ २६ ॥ अर्थ-देव गुरु मंत्र औषध पितर इत्यादिकनिके निमित्तत भी प्रात्त भई हिंसा है सो नरकमैं धरै है तो इहां फेर और प्रकार करी भई हिंसा नरक विर्षे न धरै है ? धरै ही है ॥ २६ ॥ आत्मवधो जीववधस्तस्य च, रक्षात्मनो भवति रक्षा । आत्मा न हि हंतव्यस्तस्य, वधस्तेन भोक्तव्यः ॥ ३० ॥ अर्थ-जीवका वध है सो आत्माका वध है अर जीवकी रक्षा है सो आत्माकी रक्षा है, बहुरि आत्मा हनिवे योग्य नाहीं ता कारण तिस जीवका वध त्यागना योग्य है। भावार्थ-जीवनके घात विर्षे कषाय भाव होय है तिन कषाय भावनि करि स्वभाव घात होतें आत्माही का घात भया, अर जीवनिकी रक्षा करनेतै कषाय घटै तब आयुहीकी रक्षा भई। बहुरि आत्म-घात करना योग्य नाहीं । तातें हिंसा त्यागना योग्य है ॥ ३०॥ सर्वोविरतिः कार्या विशेषयित्वातिचारभीतेन । पौर्वापर्यं दृष्टवा सूत्रार्थ तत्त्वतो कुत्रवा ॥ ३१ ॥ अर्थ-अतीचार करि भयभीत पुरुष करि सर्वा विरतिः कहिए
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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