SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठम परिच्छेद। [१३१ इहां भावार्थ ऐसा है:- जौ पहिले श्लोक में तो सर्वथा जीवकै अर शरीरक अभेद मानें हैं तिनके शरीर विनाश होतें अवश्य जीवका नाश आया तब स्वयमेव हिंसा आई, अर जे सर्वथा जीवको अर शरीर कौं भेद मान है तिनके शरीरके नाशमैं हिसा न ठहरी तब ते भी स्वच्छन्द होते हिंसक ही भये। तातें दोऊ ही एकांती है ते हिंसक हैं, ऐसा जानना ॥ २१ ॥ भिन्नाभिन्नस्य पुनः पीडा संपद्यतेतरां घोरा। देहवियोगे यस्माकेस्मादनिवारिता हिंसा ॥ २२॥ अर्थ-जातें देहते कोई प्रकार भिन्न कोई प्रकार अभिन्न ऐसा जो जीव ताकै शरीरका वियोग होत संते अतिशय करि घोर पीड़ा उपजै हैं तातें अनिवारित हिंसा होय है । मावार्थ-लक्षण भेदकरि जीव शरीर भिन्न हैं तथापि बन्धदृष्टि करि अभेद है तातें जीवके शरीरके वियोग करने मैं अवश्य हिंसा होय है, ऐसा जानना ॥ २२॥ तत्पर्यायविनाशे दुःखोत्पत्तिः परश्च संक्लेशः। यः सा हिंसा सन्दर्वर्जयितय्यिा प्रयत्नेन ॥ २३ ॥ अर्थ-तिस पर्यायके विनाश होतसन्तै दुःखकी उत्पत्ति होय है अर जो महासंक्लेश होय है सो हिंसा संतनि करि यत्न सहित वर्जन करना योग्य है ॥ २३ ॥ प्राणी प्रमादकलितः, प्राणव्य परोपणं यदा धत्ते । सा हिंसाऽकथि दक्षर्भववृक्षनिषेकजलधारा ॥ २४ ॥ . अर्थ-जो प्राणी प्रमादकरि व्याप्त भय संता शरीरादि प्राणनिका व्यपरोपणा करं है घात करै है सो पंडितनि करि हिंसा कही है, कैसीई हिंसा संसार वृक्षके सींचनेकौं जलधारा समान है। भावार्थ-कषाय सहित आफ्के वा परके प्राणनिका नाश करना सो हिंसाका लक्षण कह्या है ॥ २४ ॥ ..
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy