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________________ षष्ठम परिच्छेद [ १२६ करे है जैसे चन्द्रमा विना नक्षत्रनि करि अन्धकारका समूह नाहीं हनिए है तैसें I भावार्थ - सब व्रतन मैं जीवदया प्रधान है ऐसा जानना || १४ || तिष्ठति व्रतनियमा नाहिंसामंतरेण सुखजनकाः । पृथिवीं न विना दृष्टास्तिष्ठन्तः पर्वताः क्कापि ॥ १५ ॥ अर्थ – सुखके उपजावने हार व्रत अर नियम हैं ते दया विना नांहीं तिष्ठे हैं, जैसे पृथ्वी विना तिष्ठते पर्वत कहूं भी न देखे तैसें । भावार्थ - सब ब्रतनियमनिका आधार दया है ऐसा जानना ।। १५ ।। निघ्नानेनहिंसामात्माधारां निपात्यते नरके । खाधारां न हि शाखां, छिदानः किं पतति भूमौ ॥ १६ ॥ जो अर्थ - आत्माका आधाररूप जो अहिंसा दया ताहि विनासता पुरुष ता करि आत्मा नरक विषै पटकिए है, इहां दृष्टांत कहिए है, अपने आधाररूप जाय बैठ्या ऐसी जो शाखा डाली ताहि छेदता सन्ता पुरुष है सो पृथ्वी विष कहा नाहीं पड़े है ? पड़े ही है ॥ १६ ॥ स मतो विरताविरतः स्वल्पकषायो विवेकपरमनिधिः । रक्षति यत्रसदशकं प्राणहितं स्थावरचतुष्कम् ॥१७॥ अर्थ - जो बेइ द्रियत्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेन्द्रिय सैनी असैनी इनके पर्याप्त अपर्याप्त भेद करि दश भेद भए, यह जो त्रस दशक ताकी रक्षा कर है, अर एकेन्द्रिय बादर सूक्ष्म ताके पर्याप्त अपर्याप्त भेद करि च्यार भेद ऐसा स्थावर चतुष्क ताका हित वांछे है, अवशर्तें तिनकी हिंसा होय है तो भी अनुमोदना नाही करे है, मन्द है कषाय जाकै अर विवेकका परमनिधान सो विरताविरत श्रावक कह्या है ॥ १७ ॥ सर्वविनाशी जीवनसहननं, त्याज्यते यतो जैनः | स्थावरहननानुमतिस्ततः कृता तैः कथं भवति ॥ १८ ॥ , अर्थ - यातें जीव है सो सबका हिंसक है तातें जैनीनि करि
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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