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श्री अमितगति श्रावकाचार
आमनन्ति दिवसेषु भोजनं; यामिनीषु शयनं मनोषिणः । ज्ञानिनामवसरेषु जल्पनं,
शांतये गुरुषु पूजनं कृतम् ॥४५॥ अर्थ--पंडित है ते दिवसनि विर्षे भोजनकौं सुखके अथि कहै हैं, और रात्रिनि विषं सोवना शांतिके अर्थ कहै हैं, अर ज्ञानीनिके अवसर विष बोलना शांतिके अर्थ कहै हैं, गुरुनविर्षे का पूजन शांति के अर्थ कह हैं ॥४५॥
भुज्यते गुणवतैकदा सदा, मध्यमेन दिवसे द्विरुज्ज्वले । येन रात्रिदिवयोरनारतं, भुज्यते स कथितो नरोऽधमः ॥४६॥
अर्थ-गुणवान उत्तम पुरुष करि सदा एकबार भोजन करिए हैं अर मध्यम पुरुष करि उज्ज्वल दिन विर्षे दोयबार भोजन करिए है अर जा करि दिनरात निरन्तर भोजन करिए है सो मनुष्य अधम नोच कह्या है ॥४६॥
ये विवयं वदनावसानयो,
सरस्य घटिकाद्वयं सदा । भुंजते जितहषीकवाजिन,
स्ते भवन्ति भवभारजितः ॥४७॥ अर्थ--जे पुरुष दिनके आदि अर अन्त विर्षे सदा दोय घडीक वर्ज करि भोजन करै हैं ते जीते हैं इन्द्रिय रूप घोड़े जिननें संसारके भार करि रहित होय हैं मुक्त होय हैं ॥४७॥
ये विधाय गुरुदेवपूजनं, . भुजतेऽह्नि विमले निराकुलाः ।