SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम परिच्छेद अर्थ- मांस विषै आशक्त है चित्त जाका ऐसा जो नीच पुरुष करुनाकौं कर है सो यह निश्चयकरि वज्राग्निकरि तन जो पृथ्वी ताविषै वेलिकौं विस्तार है । भावार्थ - अग्नि करितप्त पृथ्वी विष जैसे बेल न होय तैसे मांस भक्षककै दया न होय ऐसा जानना || १३|| जायते न पिशितं जगत्रये, प्राणिघातनमृते यतस्ततः । मंक्षु मूलमुदखानि खादता, हि दया झटिति धर्मशाखिनः ॥ १४ ॥ अर्थ - जातैं तीन लोकमैं मांस है सो जीवनिकी हिंसा बिना न उपजै है तातें मांस भक्षक पुरुष करि तोड्या जो निश्चय करि धर्मवृक्ष ताका मूल जो दया सो शीघ्र खोद्या । [ १०७ भावार्थ-जीव हिंसा बिना मांस न उपजै तातें जानें मांस खाया तानें दयामूल जो धर्म ताका नाश किया || १४ || है ॥ १५ ॥ देहिनो भवति पुण्यसंचयः, शुद्ध, या न कृपया विया ध्रुवम् । दृश्यते न लतया विना मया, सार्द्रया जगति पुष्प संचयः ॥ १५॥ अर्थ - इस दयाविना जीवकै निश्चय करि पुण्य का संचय न होय है जैसे मोकरि लोक विष हरित बेल बिना पुष्पनिका संचय न देखिए हैं तैसें । भावार्थ - जैसे बेल बिना पुष्प न होय हैं तैसें दया विना व्रत न होय भक्षयन्ति पिशितं दुराशयाः, स्वकीयबलपुष्टकारिणः ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy