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________________ चतुर्थ परिच्छेद [EE भावार्थ-सर्व शून्य मानें तब प्रमाण अप्रमाण भी न ठहरै, तब सर्वक अनिश्चित ही तत्त्वसिद्धि होय प्रमाण विना संशयका निषेध काहे करि करें तातें सर्व शून्य मानना मिथ्या है ॥८६॥ सर्वत्र सर्वथा तत्वे, क्षणिके स्वीकृते सति । फ्लेन सह सम्बन्धो, धार्मिकस्य कुतस्तनः ॥७॥ अर्थ- सर्व जायगा। सर्व प्रकार तत्वकौं क्षणिक अंगीकार करे सन्ते धर्मात्मा जीवक फलकरि सहित सम्बन्ध कहांत होय । भावार्थ-सर्व प्रकार तत्वकौं क्षणिक अंगीकार करे सन्तै धर्मात्मा जीवकै फलकरि सम्बन्ध कहांत होय। सर्वप्रकार तत्वकौं क्षणिक मानें धर्मात्मा जीव धर्मका फल न पावै जातें वह तौं क्षणमैं ही विनसि गया। बहरि ऐसे होते धर्मका साधन निरर्थक ठहर या। तातें सर्वथा क्षणिक मानना योग्य नाहीं ॥७॥ वधस्य वधको हेतुः, क्षणिके स्वीकृत कथम् । प्रत्यभिज्ञा कथं लोकव्यवहारप्रवर्तनी ॥१८॥ प्रर्ण-बहुरि क्षणिककौं अंगीकार करे सन्तें हिंसक जीव है सो हिंसा का कारण कैसे होय । बहुरि लोकमें व्यवहार चलावनेवाली प्रत्यभिज्ञा कैसे होय। भावार्थ-क्षणिक माने हिंसा करनेवाला हिंसक न ठहरै जाते वह तो वा ही क्षण विनसि गया, बहुरि बालक था जो जवान भया; इसपर मेरा लेना है सो लेऊँ, देना है सो देऊँ इत्यादिक लोकव्यवहार चलावनेवाली प्रत्यभिज्ञाका भी अभाव ठहरै, जाते वह तो वाही क्षण विनसि गया व्यवहार काहेका चले तातें क्षणिक मानना मिथ्या है ॥८८॥ व्याघ्रयाः प्रयच्छतो देहं, निगद्य कृमिमंदिरम् । दातृदेहविमूढस्य, करुणा वत कीहशी ॥८६॥ अर्थ-यह शरीर लटनिका घर है ऐसा कहकै शरीरकौं बधेरीके अर्थि देय ऐसे दाता अर देहमें मूर्ख ऐसे के करुणा कैसी है ? यहु बड़े खेदकी बात है ॥८६॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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