SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ०७०७ साँप, मेंढक और पतंगिया (जुगनू) तीनों की चाल (एक दूसरे को मारने की) चल रही है, इतने में गगन मार्ग से उड़ती हुई चील की दृष्टि इन पर पड़ी - एक झपट्टा मारती सर्प को चोंच में पकड़कर उड़ चली। इधर सर्प जुनून भरा मेंढक को जीता ही निगलने को तैयार था । अब यहाँ चील ने सर्प को पकड़ा और सर्प ने मेंढक को । एक क्षण में सारी कहानी बदल गई सर्प मेंढक की लड़ाई का स्थान रिक्त (खाली) हो गया । प्रभु कहते हैं - रात्रि भोजन करने से चील, कौवा, उल्लू, गिद्ध, चामचिड़ी ( चमगादड़ ) जैसी योनि प्राप्त होती है । चील ने चोंच मारकर सर्प की आंखें फोड़ दी और मार कर खा गई । जय घोष वेदवेदान्त का परम विद्वान ब्राह्मण यह सब नाटक देख रहा था और गहराई से अवलोकन कर रहा था । विद्वान कहते हैं - देखो ! कैसी आपाधापी, अंधाधूंधी, अराजकता व्याप्त है ? मेंढक को मारने का विचार करने वाला सर्प ही मारा गया । प्रत्येक जीव के पीछे कोई न कोई लगा हुआ है । तभी कहते हैं 'जीव-जीव का लागू ' ऐसे में खामोशी भयभीत थी । ब्राह्मण जीव सृष्टि का विचार करने लगा; यदि हम भी ऐसी योनि में चले गए तो ? भय से घबराए हुए, कहीं शांति - निर्भयता नहीं, सुरक्षा नहीं, छोटा सा पेट भरने के लिए कैसा खतरा मोल लेना पड़ता है, अपने 100 वर्ष पूर्ण होने में समय नहीं लगता ? ऐसा न हो इस विचार ने ब्राह्मण को व्याकुल कर दिया । मार्ग में चलते एक जैन मुनि महात्मा मिल गए । विचारों का संयोग और मुनि का सान्निध्य मिला । “सान्निध्य में रहो तो प्रभाव अवश्य पड़ता है ।” साथ रहने से सान्निध्य मिले - ऐसा नहीं है । अंतर्मुखी होने का अवसर मिला । शास्त्रकार कहते हैं; हमारे ऊपर भी बहुत बड़ी चील (काल) चक्कर लगाती उड़ रही है; जीवन रूप मेंढक काल सर्प के मुख में फंसा हुआ है। गहराई से सोचने, अवलोकन करने से देखने की विचारने की पद्धति बदल जाती है । जय घोष ब्राह्मण ने बेचारगीमय जीवन से उबरने का उपाय पूछा और दीक्षा ग्रहण कर ली । साधु जीवन अहिंसक है। यहां सभी जीवों के साथ मैत्री ही मैत्री है । जीवन निर्दोष है । सत्य दिशा मिली, दशा बदल गई, जय घोष साधु बन गया । निष्परिग्रही, बाहर से पूर्णत: खाली दिखाई देने वाला अंदर भरा-भरा है । इन्द्र भी शर्मा जाता है, 102
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy