SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणंदिसिस्सेण । दंसणचरित्तलद्धी सुसूयिया णेमिचंदेण ॥ ६४८ ॥ लब्धिसार । कर्मकाण्डकी ३९६ वीं गाथामें नेमिचन्द्र स्वामी एक कनकनन्दि नामक आचार्यका भी उल्लेख करते हैं: वर इंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं । सिरिकणयदिगुरुणा सत्तद्वाणं समुद्दिद्धं ॥ अर्थात् - श्रीकनकनन्दि गुरुने इन्द्रनन्दि गुरुके पास सारे सिद्धान्तोंको सुनकर सत्त्वस्थानका कथन किया । इन सब गाथाओंसे यह भी मालूम होता है कि अभयनन्दि, इन्द्रनन्दि, वीरनन्दि, कनकनन्दि और नेमिचन्द्र ये सब प्राय: एक ही समयमें हुए हैं | अब हमें यह देखना चाहिए कि इनका समय क्या है । सुप्रसिद्ध एकीभाव स्तोत्रके कर्त्ता महाकवि वादिराजने अपना 'पार्श्वनाथ काव्य' शक संवत् ९४७ में सम्पूर्ण किया है * । इसके प्रारंभ में उन्होंने अपनेसे पूर्वके अनेक ग्रन्थकर्ताओंका स्तवन करते हुए लिखा है: चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मनः प्रियम् । कुमुद्वतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ॥ ३० ॥ इस श्लोक में महाकवि वीरनन्दिके चन्द्रप्रभचरितका स्पष्ट उल्लेख है । इससे मालूम होता है कि चन्द्रप्रभकाव्य शक संवत् ९४७ से पहले बन चुका था और इस लिए वीरनन्दि और नेमिचन्द्र आदिका समय भी शक संवत् ९४७ से पहले मानना होगा । * शाकाब्देन गवार्धिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने, मासे कार्तिकनाम्नि बुद्धिमहिते शुद्धे तृतीयादिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमतीं जैनी कथेयं मया, निष्पत्तिं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ॥
SR No.007269
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherManikyachandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy