SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ त्रिलोकसारे पल्ला । पल्यस्याशीतिमभागे आदिममंतरं प ेशेषांतरं तु तदेव दशभक्तं चेद्भवतिः— प १ प १ ८०० ८००० प १ प १ ८०० का ८००० का एतेषां समच्छेदेन मेलनं कृत्वा र्थमेतावदृणं प १ १ ७२ ल. को प १ ८०००० प १ प १ ८ ल प १ प १९ ८०००० का ८ ल. को प १११११११११११११ ८०cccccccc प १ प १ ८० ल ८ को नवभिः समच्छेदं कृत्वा ૭. प १ प १ प्रक्षिप्य ७३ । १ अपवर्त्य ७३ प्राक्तनकणे अपनीते ७२ १७२ ल.को पल्यस्य किंचिन्न्यूनद्वासप्तत्यंशः स्यात् ७३ एतदेव करणसूत्रेणानयति अंतधणं प प १ प १० ८० आदि ७२ ल. को गुण १७ गुणि ९० देन १ | १३ विहीणं प प १ ८० को प १ ८० ल को अत्र लघूकरणा समच्छे प९९९९ ऊत्तरभजियं ८०००००० ००००००० प९९९९ प ७२/१३ ७२००००० ००००० १९९९ अत्रैव तावहणं १३ संयोज्य १११३ अपवर्त्य प्राकू प्रक्षिप्तऋणे न्यूनं कृते किंचिन्न्यून पल्यद्वासप्तत्यंश स्यात् पु सर्वेषामायुष्याणा ११ मंतराणां च परे अष्टभिः समच्छेदं कृत्वा पुई संयोज्य पुरे नवभिरपवर्तिते किंचिन्न्यून पल्याष्टमांशः स्यात् प ृ ॥ ७९७ ॥ प १ ७२ ७२ अथ मनुभिः क्रियमाणशिक्षां तेषामंगवर्ण चाह; हा हामा हामाधिक्कारा पणपंच पण सियामलया । चक्खुम्मदुग पसेणा चंदाही धवल सेस कणयणिहा ७९८
SR No.007269
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherManikyachandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy