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________________ जैन शतक (दोहा) इस असार संसार मैं, और न सरन' उपाय। जन्म-जन्म हूजो हमैं, जिनवर धर्म सहाय ॥१०५॥ अहो ! इस असार संसार में जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई शरण नहीं है, साधन नहीं है। हमें जन्म-जन्म में जिनधर्म की ही सहायता प्राप्त होवे। ६३. अन्तिम प्रशस्ति (कवित्त मनहर) आगरे मैं बालबुद्धि भूधर खंडेलवाल, ___बालक के ख्याल-सो कवित्त कर' जानै है। ऐसे ही कहत भयो जैसिंह सवाई सबा, हाकिम गुलाबचन्द रह तिहि थानै है। हरिसिंह साह के सुवंश धर्मरागी नर, तिनके कहे सौं जोरि कीनी एक ठानै है। फिरि-फिरि प्रेरे मेरे आलस को अंत भयो, उनकी सहाय यह मेरो मन मानै है ।।१०६॥ मैं, भूधरदास खण्डेलवाल, आगरा में बालकों के खेल जैसी कविता-रचना करता हूँ। ये उक्त छन्द मैंने जयपुर के श्री हरिसिंहजी शाह के बंशज धर्मानुरागी हाकिम श्री गुलाबचन्द्रजी के अनुरोध से एकत्रित किये हैं । उन्हीं की पुनः-पुनः प्रेरणा से मेरे आलस्य का अन्त हुआ है। मैं उनका हृदय से आभार मानता हूँ। (दोहा) सतरह से इक्यासिया, पोह पाख तमलीन। तिथि तेरस रविवार को, शतक सम्पूर्ण कीन ॥१०७॥ यह शतक पौप कृष्णा त्रयोदशी रविवार विक्रम संवत् १७८१ को पूरा किया। *** १. पाठान्तर : सरल। २ पाठान्तर : रच। ३. पाठान्तर : समापत।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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