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________________ जैन शतक - (दोहा) तीन भवन मैं भर रहे, थावर-जङ्गम जीव। सब मत भक्षक देखिये, रक्षक जैन सदीव ॥९५॥ तीनों लोकों में त्रस और स्थावर जीव भरे हुए हैं। वहाँ अन्य सब मत तो उनके भक्षक हैं और जैनधर्म उनका सदा रक्षक है। (दोहा) इस अपार जगजलधि मैं, नहिं नहिं और इलाज। पाहन-वाहन । धर्म सब, जिनवरधर्म जिहाज॥९६॥ अहो, इस अपार संसार-सागर से पार होने के लिए जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, नहीं है। यहाँ अन्य सभी धर्म (मत/सम्प्रदाय) तो पत्थर की नौका के समान हैं, केवल एक जैनधर्म ही पार उतारने वाला जहाज है। (दोहा) मिथ्यामत के मद छके, सब मतवाले लोय। सब मतवाले जानिये, जिनमत मत्त न होय ॥९७॥ इस दुनिया में अन्यमतों को मानने वाले सब लोग मिथ्यास्व की मदिरा पीकर मतवाले हो रहे हैं। किन्तु जिनमत को अपनाने वाला कभी मदोन्मत्त नहीं होता – मिथ्यात्व का सेवन नहीं करता। (दोहा) मत-गुमानगिरि पर चढ़े, बड़े भये मन माहिं। लघु देखें सब लोक कौं, क्यों हूँ उतरत नाहिं ॥९८॥ अन्यमतों को माननेवाले सब लोग अपने-अपने मत के अभिमानरूपी पहाड़ पर चढ़कर अपने ही मन में बड़े बन रहे हैं, वे अपने आगे सारी दुनिया को छोटा समझते हैं, कभी भी कैसे भी अभिमान के पहाड़ से नीचे नहीं उतरते। (दोहा) चामचखन सौं सब मती, चितवत करत निबेर। ज्ञाननैन सौं जैन ही, जोवत इतनो फेर ॥९९ ॥ जैनमत और अन्यमतों में इतना बड़ा अन्तर है कि अन्यमतों को मानने वाले तो चर्मचक्षुओं से ही देखकर निर्णय करते हैं, किन्तु जैन ज्ञानचक्षुओं से देखता है।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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