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________________ जैन शतक - ५७. सुबुद्धि सखी के प्रतिवचन (मनहर कवित्त) कहै एक सखी स्यानी सुन री सुबुद्धि सनी! तेरौ पति दुखी देख लागै उर आर है। महा अपराधी एक पुग्गल है छहौं माहिं, सोई दुख देत दीसै नाना परकार है। कहत सुबुद्धि आली कहा दोष पुग्गल कौं, __ अपनी ही भूल लाल होत आप ख्वार है। खोटौ दाम आपनो सराफै कहा लगै वीर, काहू को न दोष मेरौ भौंदू भरतार है॥८८॥ एक चतुर सखी बोली :- हे सुबुद्धि रानी ! तुम्हारा पति बहुत दुःखी हो रहा है, लगता है उसके हृदय में कोई बड़ा शूल चुभा हो। हे सखी, सुनो ! इस लोक में जो ६ द्रव्य हैं, उनमें एक पुद्गल नाम का द्रव्य बड़ा अपराधी है । लगता है, वही तुम्हारे पति को नाना प्रकार से कष्ट दे रहा है। प्रत्युत्तर में सुबुद्धि रानी कहती है :- हे सखी ! इसमें पुद्गल का क्या दोष है? मेरा स्वामी स्वयं ही अपनी भूल से दु:खी हो रहा है । हे सखी ! जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो सर्राफ को क्या दोष दें? अत: वास्तव में पुद्गल आदि अन्य किसी का भी कोई दोष नहीं है, मेरा भरतार स्वयं ही भोंदू है। विशेष :-यहाँ कवि ने दो सखियों के रोचक संवाद के माध्यम से एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कहने का प्रयत्न किया है। अनादिकाल से यह जीव अपने दुः ख का कारण पर-पदार्थ को मानता है; समझता है कि स्त्री-पुत्रादि या पुदगलकर्मादि रूप परपदार्थ ही मुझे इस संसार में भ्रमण करा रहे हैं, नाना प्रकार से दुःख दे रहे हैं । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। यह जीव स्वयं ही अपने मोहराग-द्वेषादि अज्ञानभावों से दुःखी हो रहा है। उसमें किसी भी पर-पदार्थ का किञ्चित् भी दोष नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी भला-बुरा नहीं कर सकता है। अतः अपना दुःख दूर करने के लिए सर्वप्रथम परद्रव्य का दोष देखना बन्द करना चाहिए। . यहाँ दो सखियों के संवाद से और उसमें भी उपयुक्त मुहावरे के प्रयोग से काव्य-सौन्दर्य में बड़ी वृद्धि हुई है।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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