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________________ जैन शतक ___(दोहा) जिनकैं जिन के वचन की, बसी हिये परतीत। विसनप्रीति ते नर तजी, नरकवास भयभीत ॥६३॥ जिनके हृदय में जिनेन्द्र भगवान के वचनों की प्रतीति हुई हो और जो नरकवास से भयभीत हों, वे इन व्यसनों के प्रति अनुराग का त्याग करो। ३७. कुकवि-निन्दा (मत्तगयन्द सवैया) राग उदै जग अंध भयौ, सहजै सब लोगन लाज गवाई। सीख बिना नर सीख रहे, विसनादिक' सेवन की सुघराई। ता पर और रचैं रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अंध असूझन की अँखियान मैं, झोंकत हैं रज रामदुहाई ॥६४॥ अहो! रागभाव के उदय से यह दुनिया वैसे ही इतनी अंधी हो रही है कि सब लोग अपनी सारी मान-मर्यादा खोये बैठे हैं। व्यक्ति बिना ही सिखाये व्यसनादि-सेवन में कुशलता प्राप्त कर रहे हैं। ऊपर से, जो कुकवि उन्हीं व्यसनादि के पोषण करने वाले काव्यों की रचना करते हैं, उनकी निष्ठुरता का क्या कहना? वे बड़े निर्दयी हैं । भगवान की सौगन्ध, वे कुकवि, जो लोग अंधे हैं – जिन्हें कुछ नहीं दीखता, उनकी आँखों में धूल झोंक रहे हैं। (मत्तगयन्द सवैया) कंचन कुम्भन की उपमा, कह देत उरोजन को कवि बारे। ऊपर श्याम विलोकत कै२, मनिनीलम की ढकनी लँकि छारे॥ यौं सत वैन कहैं न कुपंडित, ये जुग आमिषपिंड उघारे। साधन झार दई मुँह छार, भये इहि हेत किधौं कुच कारे॥६५॥ बावले कवि (कुकवि) नारियों के स्तनों को स्वर्णकलश और स्तनों के अग्रभाग को कालिमा के कारण नीलमणि के ढक्कन की उपमा देते हैं। कहते हैं कि नारियों के स्तन नीलमणि के ढक्कन से ढके हुए स्वर्ण-कलश हैं । जबकि वस्तुस्थिति यह नहीं है। वे कुकवि सही-सही बात नहीं कहते हैं। सही बात १. पाठान्तर : विषयादिक। २. पाठान्तर : वे।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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