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________________ जैन शतक . (कवित्त मनहर) साँचौ देव सोई जामैं दोष को न लेश कोई, वहै गुरु जाकै उर काहु की न चाह है। सही धर्म वही जहाँ करुना प्रधान कही, ग्रन्थ जहाँ आदि अन्त एक-सौ निबाह है। ये ही जग रन चार इनकौं परख यार, साँचे लेह झूठे डार नरभौ को लाह है। मानुष विवेक बिना पशु के समान गिना, ताते याहि बात ठीक पारनी सलाह है ॥ ४५ ॥ सच्चा देव वही है जिसमें किंचित् भी दोष (क्षुधादि अठारह दोष एवं रागद्वेषादि सर्व विकारी भाव) न हो, सच्चा गुरु वही है जिसके हृदय में किसी प्रकार की इच्छा नहीं हो, सच्चा धर्म वही है जिसमें दया की प्रधानता हो, सच्चा शास्त्र वही है जिसमें आदि से अन्त तक एकरूपता का निर्वाह हो अर्थात् जो पूर्वापरविरोध से रहित हो। इसप्रकार हे मित्र ! इस जगत् में वस्तुतः ये चार ही रत्न हैं :- देव, गुरु, शास्त्र और धर्म; अत: तू इनकी परीक्षा कर और पश्चात् सच्चे देव, गुरु, शास्त्र और धर्म को ग्रहण कर तथा झूठे देव, गुरु, शास्त्र और धर्म का त्याग कर। इसी में मनुष्यभव की सार्थकता है। __ हे भाई! विवेकहीन मनुष्य पशु के समान माना गया है, अतः भवसागर से पार उतारने वाली उचित सलाह यही है कि तुम उक्त चारों बातों का सम्यक् प्रकार से निश्चय करो। २३. सच्चे देव का लक्षण (छप्पय) जो जगवस्तु समस्त हस्ततल जेम निहारै। जगजन को संसार-सिंधु के पार उतारै॥ आदि-अन्त-अविरोधि वचन सबको सुखदानी। गुन अनन्त जिहँ माहिं दोष' की नाहिं निशानी॥ माधव महेश ब्रह्मा किधौं, वर्धमान के बुद्ध यह। ये चिहन जान जाके चरन, नमो नमो मुझ देव वह ॥४६॥ १. पाठान्तर : रोग
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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