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________________ ३६ जैन शतक - __ (कवित्त मनहर) अहो इन आपने अभाग उदै नाहिं जानी, वीतराग-वानी सार दयारस-भीनी है। जोबन के जोर थिर-जंगम अनेक जीव, जानि जे सताये कछ करुना न कीनी है। तेई अब जीवराश आये परलोक पास, लेंगे बैर देंगे दुख भई ना नवीनी है। उनही के भय को भरोसौ जान काँपत है, ___ याही डर डोकरा ने लाठी हाथ लीनी है ॥४०॥ - अहो! इस जीव ने युवावस्था में अपने अशुभकर्म के उदय के कारण दयारस से भरी हुई श्रेष्ठ वीतराग-वाणी को नहीं समझा और जवानी के जोर में अनेक त्रस-स्थावर जीवों को जान-बूझकर बहुत सताया, उनके प्रति किंचित् भी दया नहीं की; अत: अब वृद्धावस्था में वे सभी प्राणी, जिनको इसने युवावस्था में सताया था, इकट्ठे होकर मानों इससे बदला लेने के लिए आये हैं। पहले इसने दुःख दिया था, सो अब वे इसे दुःख देंगे – यह निश्चित बात है, कोई नई बात नहीं। यही कारण है कि यह वृद्ध उनसे डर कर काँपने लगा है और इसी डर से इसने अपने हाथ में लाठी ले ली है। विशेष :-यहाँ इस छन्द में हमें कवि क. अद्भुत कल्पना शक्ति के भी दर्शन होते हैं । लोक में हम देखते हैं कि वृद्धावस्था में मनुष्य काँपने लगता है और अपने हाथ में लाठी ले लेता है। कवि अपनी कल्पना से इसका कारण बताते हुए कहता है कि ऐसा इसलिए है कि यह बहुत भयभीत है, इसने अपनी युवावस्था में त्रस-स्थावर जीवों को सताया है, अतः अब इसे बहुत डर लग रहा है कि वे सब जीव आकर मुझसे बदला लेंगे। पहले मैंने उनको बहुत सताया था सो अब वे मुझे सताएँगे, अदले का बदला तो होता ही है न! इसप्रकार यहाँ कवि ने अपनी कल्पनाशीलता से वृद्धावस्था का सजीव चित्र खींचते हुए हमें जीवदया-पालन की ममस्पर्शी प्रेरणा दी है। जो जीवदया नहीं पालते, वे बड़े अभागे हैं, उन्होंने वीतराग-वाणी के सार को जाना ही नहीं है।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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