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________________ जैन शतक (मत्तगयंद सवैया) तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे ही। दास खवास अवास अटा, धन जोर करोरन कोश भरे ही॥ ऐसे बढ़े तो कहा भयौ हे नर! छोरि चले उठि अन्त छरे ही। धाम खरे रहे काम परे रहे, दाम गरे रहे ठाम धरे ही॥३३॥ द्वार पर तीव्रगामी (स्वस्थ और फुर्तीले) घोड़े खड़े हो गये, सुन्दर-सुन्दर रथ आ गये, ऊँचे-ऊँचे मस्त हाथी खड़े हो गये, नौकर-चाकर इकट्ठे हो गये, बड़े-बड़े भवन और अटारियाँ बन गईं, धन भी अनाप-शनाप इकट्ठा हो गया, कोषों के कोष भर गये - करोड़ों खजाने भर गये। परन्तु हे भाई ! ऐसी उन्नति से क्या होता है? अन्त समय तुम्हें ये सब यहीं छोड़कर अकेले ही चला जाना होगा। ये सारे भवन खड़े ही रह जायेंगे, काम पड़े ही रह जायेंगे, दाम (धन) गड़े ही रह जायेंगे; सब कुछ जहाँ का तहाँ धरा ही रह जाएगा। १९. अंभिमान-निषेध (कवित्त मनहर) कंचन-भंडार भरे मोतिन के पुंज परे, ___घने लोग द्वार खरे मारग निहारते। जान चढ़ि डोलत हैं झीने सुर बोलत हैं, काहु की हू ओर नेक नीके ना चितारते॥ कौलौं धन खांगे कोउ कहै यौं न लांगे, तेई, फिरै पाँय नांगे कांगे परपग झारते। एते पै अयाने गरबाने रहैं विभौ पाय, धिक है समझ ऐसी धर्म ना सँभारते ॥३४॥ जिनके यहाँ सोने के भण्डार भरे हैं, मोतियों के ढेर पड़े हैं, बहुत से लोग उनके आने की राह देखते हुए दरवाजे पर खड़े रहते हैं, जो वाहनों पर चढ़कर घूमते हैं, झीनी आवाज में बोलते हैं, किसी की भी ओर जरा ठीक से देखते तक नहीं हैं, जिनके बारे में लोग कहते हैं कि इनके पास इतना धन है कि उसे ये न जाने कब तक खायेंगे, इनका धन तो ऐसे-वैसे कभी खत्म ही नहीं होने वाला है; वे ही एक दिन (पापकर्म का उदय आने पर) कंगाल होकर नंगे पैरों फिरते हैं और दूसरों के पैरों की मिट्टी झाड़ते रहते हैं – सेवा करते फिरते हैं। ____ अहो ! ऐसी स्थिति होने पर भी अज्ञानी जीव वैभव पाकर अभिमान करते हैं। धिक्कार है उनकी उल्टी समझ को, जो कि वे धर्म नहीं सँभालते हैं। १. पाठान्तर : डरे।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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