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________________ २० जैन शतक ८. श्री साधु स्तुति (कवित्त मनहर) शीतरितु जोरै अंग सब ही सकोरे तहाँ, तन को न मोरै नदीधौरे धीर जे खरे। जेठ की झकोरै जहाँ अण्डा चील छोरें, पश-पंछी छाँह लौर गिरिकोरै तप वे धरें। घोर घन घोर घटा चहूँ ओर डोरै ज्यों-ज्यौं, चलत हिलारै त्यों-त्यों फोरै बल ये अरे। देहनेह तोरै परमारथ सौं प्रीति जोरै, . ऐसे गुरु ओर हम हाथ अंजुली करें ॥१३॥ जो धीर, जब सब लोग अपने शरीर को संकुचित किये रहते हैं ऐसी कड़ाके की सर्दी में, अपने शरीर को बिना कुछ भी मोड़े, नदी-किनारे खड़े रहते हैं, जब चील अंडा छोड़ दे और पशु-पक्षी छाया चाहते फिरें ऐसी जेठ माह की लूओं (गर्म हवाओं) वाली तेज गर्मी में पर्वत-शिखर पर तप करते हैं तथा गरजती हुई घनघोर घटाओं और प्रबल पवन के झोंकों में अपने पुरुषार्थ को अधिकाधिक स्फुरायमान करते हुए डटे रहते हैं, शरीर सम्बन्धी राग को तोड़कर परमार्थ से प्रीति जोड़ते हैं; उन गुरुओं को हम हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं। विशेष :-प्रस्तुत छन्द में कवि ने परिषहजयी साधुओं की स्तुति करते हुए कहा है कि ऐसी शीत, उष्ण, वर्षा में भी वे अपने आत्मिक पुरुषार्थ को अधिकाधिक स्फुरायमान करते हुए डटे रहते हैं। सो वास्तव में परिषहजय का अभिप्राय ऐसा ही है कि परिषह की ओर लक्ष्य ही न जावे और साधक आत्मानुभव में ही लगा रहे, उससे जरा भी विचलित न हो। आचार्य ब्रह्मदेवसूरि 'द्रव्यसंग्रह' (गाथा-३५) की टीका में लिखते हैं कि "क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि . . . निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्दलक्षणसुखामृत संवित्तेरचलनं स परिषहजय इति।" अर्थात् क्षुधादि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी . . . निजपरमात्मभावना से उत्पन्न निर्विकार व नित्यानन्द रूप सुखामृत के अनुभव से विचलित नहीं होना ही परिषहजय है।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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