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________________ जैन शतक ५. श्री पार्श्वनाथ स्तुति (छप्पय) १७ जनम - जलधि- जलजान, जान जनहंस - मानसर । सरव इन्द्र मिलि आन, आन जिस धरहिं सीस पर ॥ परउपगारी बान, बान उत्थपइ कुनय-गन । गन- सरोजवन - भान, भान मम मोह - तिमिर - घन ॥ घनवरन देहदुख-दाह हर, हरखत हेरि मयूर-म‍ मनमथ - मतंग- हरि पास जिन जिन विसरहु छिन जगतजन ! ॥ ८ ॥ - मन । " हे संसार के प्राणियो ! भगवान पार्श्वनाथ को कभी क्षण भर भी मत भूलो। वे संसाररूपी समुद्र को तिरने के लिए जहाज हैं, भव्यजीवरूपी हंसों के लिए मानसरोवर हैं, सभी इन्द्र आकर उनकी आज्ञा मानते हैं, उनके वचन परोपकारी और कुनय समूह की प्रकृति को उखाड़ फेंकने वाले हैं, मुनिसमुदायरूपी कमल के वनों (समूहों ) के लिए सूर्य हैं, आत्मा के घने मोहान्धकार को नष्ट करने वाले हैं, मेघ के समान वर्णवाले हैं, सांसारिक दुःखों की ज्वाला को हरने वाले हैं, उन्हें पाकर मनमयूर प्रसन्न हो जाता है, और कामदेवरूपी हाथी के लिए तो वे ऐसे हैं जैसे कोई सिंह | विशेष :- प्रस्तुत पद में महाकवि भूधरदास ने तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की बड़े ही कलात्मक ढंग से स्तुति की है। पद का भाव - सौन्दर्य तो अगाध है ही, शिल्प- सौन्दर्य भी विशिष्ट है । यथा, इस पद का पहला कदम 'जान' शब्द पर रुका है तो दूसरा कदम पुनः 'जान' शब्द से ही शुरू हो रहा है, दूसरा कदम 'सर' पर रुका है तो तीसरा कदम पुनः 'सर' से ही प्रारम्भ हो रहा है, तीसरा कदम 'आन' पर रुका है तो चौथा कदम पुनः 'आन' से ही प्रारंभ हो रहा है । इसी प्रकार पद के अन्य सभी कदम अपने पूर्व-पूर्ववर्ती कदम के अन्तिम अक्षरों को अपने हाथ में पकड़कर ही आगे बढ़ते हैं । इतना ही नहीं, पद का प्रारंभ 'जन' शब्दांश से हुआ है तो अन्त भी 'जन' से ही हुआ है । यद्यपि ऐसी विशेषता 'कुण्डलिया' में पाई जाती है, पर महाकवि भूधरदास ने 'छप्पय' में भी यह कलात्मक प्रयोग कर दिखाया है । 1 यमक अलंकार के विशिष्ट प्रयोग की दृष्टि से भी यह पद उल्लेखनीय है । यमक अलंकार के एक साथ इतने और वे भी ऐसे विशिष्ट प्रयोग अन्यत्र दुर्लभ हैं।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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