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________________ जैन शतक (सवैया) करनौं कछु न करन तैं कारज, तातैं पानि प्रलम्ब करे हैं। रह्यौ न कछु पाँयन तैं पैबौ, ताही ते पद नाहिं टरे हैं। निरख चुके नैनन सत्र यातें, नैन नासिका-अनी धरे हैं। कानन कहा सुनैं यौं कानन, जोगलीन जिनराज खरे हैं ॥३॥ जिनेन्द्र भगवान को हाथों से कुछ भी करना नहीं बचा है, अत: उन्होंने अपने हाथों को शिथिलतापूर्वक नीचे लटका दिया है। पैरों से चलकर उन्हें कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहा है, अत: उनके पैर एक स्थान से हिलते नहीं हैं, स्थिर हैं; वे सब कुछ देख चुके हैं, अत: उन्होंने अपनी आँखों को नासिका की नोक पर टिका दिया है; तथा कानों से भी अब वे क्या सुनें, इसलिए ध्यानस्थ होकर कानन (वन) में खड़े हैं। विशेष :- ठीक ऐसा ही भाव 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' के धर्मोपदेशनाधिकार, श्लोक २ में भी प्रकट किया गया है। ---- (छप्पय) .. . जयौ नाभिभूपाल-बाल सुकु माल सुलच्छन। जयौ स्वर्गपातालपाल गुनमाल प्रतच्छन। दृग विशाल वर भाल लाल नख चरन विरजहिं । रूप रसाल मराल चाल सुन्दर लखि लज्जहिं॥ रिप-जाल-काल रिसहेश हम, फँसे जन्म-जंबाल-दह । यातें निकाल बेहाल अति, भो दयाल दुख टाल यह ॥ ४॥ नाभिराय के सुलक्षण और सुकुमार पुत्र श्री ऋषभदेव जयवन्त वर्तो ! स्वर्ग से पाताल तक तीनों लोकों का पालन करने वाले श्री ऋषभदेव जयवन्त वर्तो !! स्वाभाविक रूप से व्यक्त हुए उत्कृष्ट गुणों के समुदाय स्वरूप श्री ऋपभदेव जयवन्त वर्तो !!! श्री ऋषभदेव के नेत्र विशाल हैं, उनका भाल (ललाट) श्रेष्ठ या उन्नत हैं, उनके चरणों में लाल नख सुशोभित हैं, उनका रूप बहुत मनोहर है और उनकी सुन्दर चाल को देखकर हंस भी लज्जित होते हैं। - हे कर्मशत्रुओं के समूह को नष्ट करने वाले भगवान ऋषभदेव ! जन्म-मरण के गहरे कीचड़ में फंसकर हमारी बहुत दुर्दशा हो रही है, अत: आप हमें उसमें से निकालकर हमारा महादुःख दूर कर दीजिये।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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