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________________ ८९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जब मुक्ति कामिनी के कटाक्ष अन्तर्मन को करते विचलित। तुम मुक्ति वधू को पाकर ही निज में रहना पूरे निश्चित ॥ अंतरात्मा उसे श्रवण कर अंतरंग में ध्याता है । परम शुद्ध चिद्रूप सहज अन्तमुहूर्त में पाता है ॥२३॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (२४) अंतश्चितः पुरः शुद्धचिदरूपाख्यानकं हितं । : । : बुभुक्षिते पिपासार्त्तेऽन्नं जलं योजितं यथा ॥२४॥ अर्थ- उसी प्रकार अन्तरात्मा के सामने कहा गया शुद्धचिद्रूप का उपदेश भी परम हित प्रदान करने वाला है । २४. ॐ ह्रीं अन्तरातत्मादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | कारणपरत्मात्मस्वरूपोऽहम् । ताटंक भूखे को तो अन्न तथा प्यासे को जल है हितकारी । त्यों चिद्रूप शुद्ध की कथनी अतंरात्मा सुखकारी ॥ अन्तरात्मा परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति पाकर भारी । परमात्मा हो जाता है वह हो जाता है अविकारी ॥२४॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२५) उपाया बहवः संति शुद्धचिद्रूपलब्धये । तद्ध्यानेन समो नाभूदुपायो न भविष्यति ॥२५॥ अर्थ- अन्त में ग्रन्थकार कहते हैं कि यद्यपि शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के बहुत से उपाय हैं। तथापि उनमें ध्यानरूप उपाय की तुलना करने वाला न कोई उपाय हुआ है, न हैं और न होगा। इसलिये जिन्हें शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति की अभिलाषा हो, उन्हें चाहियें कि वे सदा उसका ही नियम से ध्यान करें । २५. ॐ ह्रीं अतुलशुद्धचिद्रूपाय नमः । निरूपमस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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