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________________ ८५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जो छटे सातवें झूलेंगे वे बंध भाव क्षय कर देंगे । जो झूल न पाएंगे इस पर वे आत्म भाव क्षय कर देंगे || जिन का समय शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति में होता सतत व्यतीत । ऐसे विरले आत्म ध्यान से हो जाते संसारातीत ॥१६॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१७) वाचांगेन हदा शुद्धचिद्रूपोहमिति हुवे । सर्वदानुभवामीह स्मरामीति त्रिधा भजे ||१७| अर्थ- शुद्ध चिद्रूप के विषय मे सदा यह विचार करते रहना चाहिये कि मैं शुद्ध चिद्रूप हूं ऐसा वचन और काय से सदा कहता हूं तथा मन अनुभव और स्मरण करता हूं । १७. ॐ ह्रीं मनवचनतनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निष्कायस्वरूपोऽहम् । मन वच काया से जो भजता परम शुद्ध चिद्रूप महान मैं ही परम शुद्ध चिद्रूपी मैं ही तो हूँ श्रेष्ठ प्रधान || इसका ही जो अनुभव करता इसको ही करता है मुख्य । इस प्रकार जो ध्यान लीन है वह विद्वानों में है मुख्य परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का ही रहता उर में उत्साह । वही आत्म पुरुषार्थ पूर्वक पाता उर में ज्ञान अथाह ॥१७॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१८) शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानहेतुभूतां क्रियां भजेत् । सुधीः कांचिच्च पूर्वं तद्ध्याने सिद्धे तु तां त्यजेत् ||१८|| अर्थ- जब तक शुद्ध चिद्रूप का ध्यान सिद्ध न हो सके, तब तक विद्वान को चाहिये कि उसकी कारण रूप क्रिया का अवश्य आश्रय ले। परन्तु उस ध्यान के सिद्ध होते ही उस क्रिया का सर्वथा त्याग कर दे । १८. ॐ ह्रीं ध्यानहेतुभूतक्रियाविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । टङ्कोत्कीर्णस्वरूपोऽहम् । 11
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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