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________________ ६७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान ज्ञानानंद स्वभावी आत्मा को ही जीव तत्त्व कहते । दर्शन ज्ञान स्वभाव रहित पांचों को ही अजीव कहते ॥ वीरछंद जो मुनि करते परम शुद्ध चिद्रप स्मरण बारंबार । अघ क्षय होते कोई गुण उनसे न दूर रहता अविकार || इसी शुद्ध चिद्रूप स्मरण से अनंत गुण होते प्राप्त . स्मृत निज चिद्रूप शुद्ध का धारी हो जाता है आप्त॥२०॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२१) तिष्ठत्वेकत्र सर्वे वरगुणनिकराः सौख्यदानेऽतिदृप्ताः, संभूयात्यंतरम्या वरविधिजनिता ज्ञानजायां तुलायाम् ।। पार्श्वेन्यस्मिन् विशुद्धा हूयुपविशतु वरा केवला चेति शुद्ध चिद्रूपोऽहं स्मृतिर्भो कथमपि विधिना तुल्यतां ते न यांति ॥२१॥ अर्थ- ज्ञान को तरजू की कल्पना कर उसके एक पलड़े में समस्त उत्तमोत्तम गुण, जो भांति भांति के सुख प्रदान करने वाले हैं अत्यन्तरम्य और भाग्य से प्राप्त हुये हैं, इकडे कर रक्खे। और दूसरे पलड़े में अतिशय विशद्ध केवल मैं शुद्धचिद्रूप हूं ऐसी स्मृति को रक्खे । तब भी वे गुण शुद्ध चिद्रूप की स्मृति की तनिक भी तुलना नहीं कर सकते। २१. ॐ ह्रीं चैतन्यगुणनिकरस्वरूपाय नमः । ज्ञानतुलास्वरूपोऽहम् । छंद ताटंक. ज्ञान तुला से तोलो तो जितने गुण हैं वे एक तरफ | परम शुद्ध चिद्रूप अतुल है उसे रखो तुम एक तरफ || एक शुद्ध चिद्रूप स्मरण सभी गुणों से भारी है । सादि अनंत सौख्य दाता है पूर्णतय शिवकारी है ॥२१॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२२) तीर्थतां भूः पदैः स्पृष्टा नाम्ना योऽघचयः क्षयम् । सुरौघो यांति दासत्वं शुद्धचिद्रक्तचेतसाम् ॥२२॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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