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________________ ५६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन द्रव्यों में गुण प्रमेयत्व है अतः ज्ञान का विषय सुजान । केवलज्ञान सिद्ध होता है प्रमेयत्व गुण से लो जान || जो मनुष्य शुद्धचिद्रूप के स्मरण करने वाले हैं उनके वे दुख कहां विलीन हो जाते हैं? ३. ॐ ह्रीं क्षुधातृषादिदोषरहितनिर्दोषस्वरूपाय नमः । निर्मदस्वरूपोऽहम् । क्षुधा तृषादिक रोग कटुकवच शस्त्र नृपति शत्रु संयोग। निर्धनता मानादि भंग कितने ही हैं संयोग वियोग | ये सारे दुख भी मनुष्य के सब विलीन हो जाते हैं । जो चिद्रूप स्मरण करते वे ही बहु सुख पाते है ॥३॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (४) स कोपि परमानन्दश्चिद्रूपध्यानतो भवेत् । तदंशोपि न जायेत त्रिजगत्स्वामिनामपि I४|| अर्थ शुद्ध चिद्रूप के ध्यान से वह एक अद्वितीय और अपूर्व ही आनन्द होता है । जिसका अंश भी तीन जगत के स्वामी इन्द्र आदि को प्राप्त नहीं हो सकता। ४. ॐ ह्रीं परमानन्दचिद्रूपाय नमः । ईश्वरस्वरूपोऽहम् । एक शुद्ध चिद्रूप ध्यान से होता है अपूर्व आनंद । अंश मात्र इन्द्रादिक सुख भी ऐसा होता नहीं अखंड | यदि अखंड सुख की इच्छा हो तो चिद्रूप शुद्ध ध्याओ । क्रम क्रम से निज शक्ति प्रगटकर अंतिम क्षण इन को पाओ॥४॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । सौख्यं मोजयोऽशुभारवहति शोतिदुष्कर्मणामत्यन्तं च विशुद्धता नरि भवेदाराधानातात्विकी । रत्नानां त्रितयं नृजन्म सफल संसारभीनाशनं, चिद्रूपोहमितिस्मृतेश्च समता सद्भ्यो यश कीर्तिनम् ॥५॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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