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________________ ४७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अरहंतों सिद्धों के सम मैं दर्शन ज्ञान स्वभावी जीव । सभी जीव हैं दर्शन ज्ञान स्वभावी कोई नहीं अजीव || चिदूपरूपी रत्न प्राप्त कर लिया है। और मेरी बुद्धि पर पदार्थों को निज न मानने से स्वच्छ हो चुकी हैं; इसलिये अब मेरे लिये संसार में कोई पदार्थ न जानने लायक रहा और न देखने योग्य, ढूंढने योग्य कहने ध्यान करने योग्य सुनने योग्य प्राप्त करने योग्य आश्रय करने योग्य और ग्रहण करने योग्य ही रहा। क्योंकि यह शुद्ध चिद्रूप अप्राप्त पूर्व पहिले कभी भी प्राप्त न हुआ था ऐसा है और अतिप्रिय है । १९. ॐ ह्रीं अपूर्वनिजात्मस्वरूपाय नमः । चिदूषरत्नस्वरूपोऽहम् । ताटंक श्री सर्वज्ञ देव की वाणी सुनकर किया तत्त्व निर्णय । महा भाग्य से परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्त हो गया ह्रदय ॥ इस जग में अब कोई द्रव्यं न रहा जानने के प्रभु योग्य । नहीं देखने योग्य कोई भी अति प्रिय चिद्रूपी के योग्य || जो है योग्य वही चिद्रूप शुद्ध बुद्ध महिमा शाली । सावन भादो स्वरस सरसता नित्य यहाँ है दीवाली ॥१९॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. (२०) शुद्धश्चिदरूपरूपोहमिति मम दधे मंक्षु चिद्रूपरूपम्, चिद्रूपेणैव नित्यं सकलमलमिदा तेन चिद्रूपकाय । चिद्रूपाद् भूरिसौख्यात् जगतिवत्तरात्तस्य चिदूपकस्य, माहात्म्यं वेत्ति नान्यो विमलगुणगणे जातु चिद्रूपके शाय् ॥२०॥ अर्थ- शुद्धचित्स्वरूपी मैं समस्त दोषों के दूर करने वाले चित्स्वरूप के द्वारा चिद्रूप की प्राप्ति के लिये सौख्य के भंडार और परम पावन चिद्रूप से अपने चिद्रूप को धारण करता हूं। मुझसे भिन्न अन्य मनुष्य उसके विषय में अज्ञानी है। इसलिये वह चित्स्वरूप का भले प्रकार ज्ञान नहीं रख सकता और ज्ञान के न रखने से उसके माहात्म्य को न जानकर उसे धारण भी नहीं कर सकता ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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