SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान नयातीत पक्षातिक्रान्त हूं शब्दातीत व वचनातीत । .. रसातीत हूं गंध अतीती पर्श रहित हूँ राग़ातीत ॥ अर्थ- अयोग केवली चौदहवें गुणश्तान से मरने वाले जीव मोक्ष जाते हैं। और शेष सात गुणस्थानों से मरने वाले देव होते हैं । १२. ॐ ह्रीं देवोत्पन्नयोग्यसप्तगुणस्थानविकल्परहितशुद्धचिदूपाय नमः । अजन्माज्ञानस्वरूपोऽहम् । विधाता चौदवाँ त्यागते तत्क्षण मोक्ष में ही त्वरित जाते । शेष सातों गुण थानों मे मरें तो देव पद पाते | गुण स्थानों में मत उलझो इन्हें तजना ही है आगे । भजो चिद्रूप ही अपना सतत अनवरत मन लागे ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥१२॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१३) शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानं कृत्वा यान्त्यधुना दिवम् । तत्रेन्द्रियसुखं भुक्तवा श्रुत्वा वाणी जिनागताम् ॥१३॥ अर्थ- इस समय भी जो जीव शुद्धचिद्रूप के ध्यान करने वाले हैं। वे मरकर स्वर्ग जाते हैं। और वहाँ भले प्रकार इन्द्रियजन्य सुखों को भोगकर भगवान जिनेन्द्र के मुख से जिनवाणी श्रवण कर समस्त जिन मंदिरों में जा और उनकी पूजन आदि कर मनुष्य भव और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर, शुद्धचिद्रूप के ध्यान से समस्त कर्मो का क्षय कर सिद्धस्थान को प्राप्त होकर तीन लोक के शिखर पर जा विराजते हैं १३-१४-१५ । १३. ॐ ह्रीं इन्द्रियसुखभोगरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चैतन्यमृताहारस्वरूपोऽहम् । . विधाता । शुद्ध चिद्रूप के ध्यानी जिस समय स्वर्ग जाते हैं । वहाँ पाते हैं इन्द्रिय सुख दिव्य ध्वनि सहज पाते हैं |
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy