SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६३ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान ध्रुव चैतन्य क्लिास स्वरूप आत्मा की अनुभूति करो । अब विभाव. परिणति को क्षय कर निर्मल आत्म प्रतीति करो || समस्त कर्मो से अपनी आत्मा को मुक्त करना चाहते हैं। उन्हें चाहिए कि शास्त्र से इनका यथार्थ स्वरूप जानकर सदा अभ्यास करते रहें । ५-६-७ ६. ॐ ह्रीं यमनियमासमप्राणायामप्रत्याहारादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । नियोगोऽहम् | विधाता शुद्ध चिद्रूप अति पावन संदेशा शुद्ध लाया है । चतुर्गति के दुखों का अंत मेरे पास आया शुद्ध चिद्रूप का पावन सरोवर मैंने पाया है । शुद्ध चिद्रूप अति पावन संदेशा शुद्ध लाया है ॥ यम नियम आसन प्राणायाम धारणा प्रत्याहार स्वध्यान | समाधि युक्त आठों संग योग के होते श्रेष्ठ प्रधान ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥६॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (७) ध्यानञ्चैव समाधिश्च विज्ञायैतानि शास्त्रतः । सदैवाभ्यसनीयानि भदेतेन शिवार्थिना ॥७॥ 11 ७. ॐ ह्रीं ध्यानसमाध्यादिरूपाभ्यासविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अयोगोऽहम् | विधाता योग की सिद्धि है इनसे मोक्ष अभिलाषी में पायी । शास्त्र से ज्ञान करने का किया अभ्यास सुखदायी || शुद्ध चिद्रूप का सागर ह्रदय में लहलहाता है । स्वर्ग सुख दे के फिर यह मुक्ति का सुख उर में लाता है ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy