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________________ ३५२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन मत्त रहे परभावों में हम चारों गतियों में बहके । सुस्थित आत्म स्वभाव न जाना चारों गतियों में रह के॥ मानव जो राग द्वेष से विरहित सारे पदार्थ जानता । आकुलता रहित वही तो सुखमय स्वरूप मानता ॥ चिद्रूप शुद्ध कैसे हो पर में आकुल व्याकुल है । आकुलता छोड़ सभी तू चिद्रूप शुद्ध निर्मल है ॥१७॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१८) इन्द्राणां सार्वभौमानां सर्वेषां भावनेशिनाम् । विकल्पसाधनैः खार्थे र्व्याकुलत्वात्सुखं कुतः ॥१८॥ अर्थ- इन्द्र चक्रवर्ती ओर भवनवासी देवों के स्वामियों के जितने इन्द्रियों के विषय होते हैं, वे विकल्पों से होते हैं। अपने अर्थो के सिद्ध करने में उन्हें नाना प्रकार के विकल्प करने पड़ते हैं. और उन विकल्पों से चित्त सदा आकुलतामय रहता है, इसलिये सुख नाम का पदार्थ वास्तविक सुख उन्हें कभी प्राप्त नहीं होता। परन्तु जो पुरुष उनके सुख को वास्तविक सुख मसझते हैं और उस सुख की वास्तविक सुख में गणना करते हैं। मैं (ग्रन्थकार) समझता हूँ, उनकी वह बड़ी भारी भूल हैं। वह सुख कभी वास्तविक सुख नहीं हो सकता । १८-१९ १८. ॐ ह्रीं इन्द्रसार्वभौमत्वादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानेन्द्रस्वरूपोऽहम् । मानव इन्दिादि चक्रवर्ती के इन्द्रिय विषयी जो सुख हैं । वे सब विकल्प से युत हैं अतएव वे सभी दुख हैं ॥ दुख सुख की परिभाषाएं करता है यह प्रतिक्षण मन । चिद्रूप शुद्ध परिभाषा सुख की करते ज्ञानीजन ॥१८॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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