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________________ ३४१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान निंदक पास अगर रहता है तो निर्मल हो जाता है । बिना नीर ही बिन श्रम के ही परम स्वच्छ हो जाता है। (२) निर्द्रव्यं स्ववशं निजस्थमभयं नित्यं निरीहं शुभनिर्द्वन्द्व निरुपद्रवं निरुपमं निबंधमूहातिगम् । उत्कृष्टं शिवहेत्वदोषममलं यददुर्लभं केवलं स्वात्मोत्थं सुखमीदृशं च खभवं तस्माद्विरुद्धं भवेत् ॥२॥ अर्थ- यह आत्मोत्थ निराकुलतामय सुख निर्दव्य है-परद्रव्यों के संपर्क से रहित है। स्वाधीन, आत्मीय यों से रहित नित्य समस्त प्रकार की इच्छाओं से रहित अनुपम कर्म बंधों से रहित तर्क वितर्क के अगोचर, उत्कृष्ट कल्याणों का करने वाला निर्दोष निर्मल और दुर्लभ है। परन्तु इन्द्रिय जन्य सुख सर्वथा इसके विरुद्ध है। वह परद्रव्यों के संबंध से होता है। पराधीन, पर नाना प्रकार के भयों का करने वाला विनाशीक, अनेक प्रकार की इच्छा उत्पन्न करने वाला अशुभ आकुलतामय अनेक प्रकार के उपद्रवों को खड़ा करने वाला महानिंदनीय, कर्मबंध का कारण महानिकृष्ट दुःख देने वाला अनेक प्रकार के दोष और मलों का भंडार और सुलभ है इसलिये सुखाभिलाषी जीवों को चाहिये कि निराकुलतामय सुख की प्राप्ति का उपाय करें । २. ॐ ह्रीं निर्द्रव्यस्ववशनिरुपमनिराकुलसुखस्वरूपाय नमः । निर्द्वन्द्वोऽहम् । छंद मानव आत्मोत्थ निराकुल सुख तो पर के संपर्क रहित है । इच्छाओं से विरहित है कर्मो के बंध रहित है | है तर्क वितर्क अगोचर कल्याणी सुख दाता है । इन्द्रिय सुख रहित सर्वथा दुर्लभ सुख निर्माता है | पर द्रव्यों से सम्बंधित जो पराधीनता दुख है । है महा उपद्रव कर्ता इसमें न रंच भी सुख है ॥ जो हैं सुखाभिलाषी खोजे सुख उपाय अपना । चिद्रूप शुद्ध ही शाश्वत संसार शेष है सपना ॥२॥ hॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. IK
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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