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________________ ३३० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन जो प्रत्यक्ष प्रकाश प्राप्त करने का उद्यम करते हैं । वे ही सम्यक् दर्शन पाकर मिथ्याभ्रम तम हरते हैं | | ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि..। (१४) ते वंद्या गुणिनस्ते च ते धन्यास्ते विदांवराः । वसन्ति निर्जने स्थाने ये सदा शुद्धचिद्रतः ॥१४॥ अर्थ- जो मनुष्य शुद्धचिद्रूप में अनुरक्त हैं और उसकी प्राप्ति के लिये निर्जन स्थान में निवास करते हैं। संसार में वे ही वंदनीय सत्कार के योग्य गुणी धन्य और विद्वानों के शिरोमणि हैं। अर्थात् उत्तम पुरुष उन्हीं का आदर सत्कार करते हैं और जिन्हें वे गुणी धन्य और विद्वानों में उत्तम मानते हैं १४. ॐ ह्रीं निर्जनस्थानादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजयैतन्यस्थानस्वरूपोऽहम् । ___ हरिगीतिका चिद्रूप शुद्ध अनुकरण करते विजन वन में ही निवास । गुणी हैं वे धन्य हैं वे आत्मा में है निवास ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१४॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१५) निर्जनं सुखदं स्थानं ध्यानाध्ययनसाधनम् । रागद्वेषविमोहां शातनं सेवते सुधीः ॥१५॥ अर्थ- यह निर्जन स्थान अनेक प्रकार कै सुध प्रदान करने वाला है। ध्यान और अध्यय का कारण है। राग द्वेष और मोह का नाश करने वाला हैं, इसलिये बुद्धिमान पुरुष अवश्य उसका आश्र करते हैं। १५. ॐ ह्रीं ध्यानध्ययनसाधननिर्जनस्थानादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।। शाश्वतनिजज्ञाननिवासमंदिरोऽहम् । हरिगीतिका
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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