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________________ ३२७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान सम्यक् हेतु प्राप्त करने को नहीं चाहिए हेत्वाभास । नहीं कोई आभास चाहिए निश्चय या व्यवहाराभास ॥ साथ संगति और किसी कार्य का चितवन भी नहीं करते । ९. ॐ ह्रीं इहपरभवविषयकसुखदुःखादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अभयोऽहम् । हरिगीतिका स्वपर ज्ञानी आत्मा का चाहते कल्याण हैं । विकल्पों का नाश करते परिग्रह अवसान हैं | दूसरों की कुसंगति करते नहीं हैं भूलकर । चिन्तवन करतें न पर के कार्य को वे भूलकर || शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥९॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१०) वृश्चिका युगपत्स्पृष्टाः पीडयन्ति यथाङ्गिनः । विकल्पाश्च तथात्मानं तेषु सत्सु कुतः सुखम् ॥१०॥ अर्थ- जिस प्रकार शरीर पर एक साथ लगे हुए अनेक विच्छु प्राणी को काटते और दुखित बनाते हैं। उसी प्रकार अनेक प्रकार के विकल्प भी आत्मा को बुरी तरह दुःखाते हैं। जरा भी शांति का अनुभव नहीं करने देते, इसलिए उन विकल्पों की मौजूदगी में आत्मा को कैसे सुख हो सकता है। विकल्पों के जाल में फंसकर रत्तीभर भी यह जीव सुख का अनुभव नहीं कर सकता । १०. ॐ ह्रीं गुरुशास्त्रादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजाधीनज्ञानरत्नोऽहम् । हरिगीतिका बिच्छुओं का झुंड इक संग देह को करता दुखी । विकल्पों से आत्मा होता सतत पूरा दुखी ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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