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________________ ३१५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान नहीं नूतन आस्रव हो शुद्ध हो संवर ह्रदय । बंध फिर क्यों कर्म होंगे बंध पर पायी विजय ॥ १९. ॐ ह्रीं परद्रव्यविषयकमनवचकायव्यापाररहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । विदेहस्वरूपोऽहम् | हरिगीतिका तत्त्वज्ञानी सुमुनि निज पर भेद पूरा जानते । शुद्ध निज चिद्रूप पाते द्रव्य सब पर त्यागते ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है । राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥१९॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (२०) दिक्चेलैको हस्तपात्रो निरीह : साम्यारूढस्तत्ववेदी तपस्वी । मौनी कर्मोंघेभसिंहो विवेकी सिद्धयै स्यात्स्वे चित्स्वरूपेऽभिरक्तः ॥२०॥ अर्थ- जो मुनि दिगम्बर पाणिपात्र वाले समस्त प्रकार की इच्छाओं से रहित समता के अवलम्बी तत्वों के वेत्ता, तपस्वी, मौनी, कर्मरूपी हाथियों के विदागरण करने में सिह विवेकी और शुद्धचिद्रूप में लीन है, वे ही परमात्म पद प्राप्त करते हैं। वे ही ईश्वर कहे जाते हैं। अन्य नहीं । २०. ॐ ह्रीं हस्तपात्रयुक्ततपस्वीविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजगुणौघस्वरूपोऽहम् । पाणि पात्री दिगम्बर मुनि अनिच्छुक समता धरण । तत्त्ववेत्ता परम पद को प्राप्त करते हैं महान । उसने पायी स्वयं की ही ध्रुव परम पावन पर शर वही ईश्वर सिद्ध प्रभु है सकल त्रिभुवन में प्रधान || शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है । राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥२०॥ ॐ ह्रीं भटाटरकज्ञानभूषणविचचितत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपलब्ध्यैपरद्रव्यत्यागप्रतिपादक पञ्चदशाध्याये अनन्तगुणवैभवस्वरूपाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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