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________________ ३०५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान रंगोली ज्ञान की रचना दर्शनी शुद्ध केवल की । सारिका गीत गाएगी तुम्हारे यश समुज्जवल की ॥ | ४. ॐ ह्रीं रथशिबिकाभूषावस्त्रादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानरथस्वरूपोऽहम् । हरिगीता तीव्र मोहाकुल पुरुष ही दुखी रहते हैं सदा । स्वर्ग स्त्री पुत्र आदिक प्राप्ति हित व्याकुल सदा ॥ मोह की इस तीव्रता से निराकुल होता नहीं । कष्ट पाता है बहुत व्याकुल मगर होता नहीं ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है । राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥४॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (५) रैगोभार्यः सुतावा गृहवसनरथाः क्षेत्रदासीभशिष्याः - कर्पूराभूषणाद्यापणवनिशिविका बंधुमित्रायुधाद्याः । मंचा वाब्यादिभुत्यातपहरणखगा: स्तुर्यपात्रासनाद्याः, दुःखानां हेतवोऽमी कलयाति विमतिः सौख्यहेतून् किलैतान् ||५|| अर्थ- देखो! इस बुद्धिशून्य जीव की समझदारी! जो धन, गाय, स्त्री,. पुत्री, अश्व, घर, वस्त्र, रथ क्षेत्र, दासी, हाथी, शिष्य, कपूर, आभूषण दुकान वन, पालकी, बंधु मित्र, आयुध, मंच (पलंग) बावड़ी, भृत्य छत्र, पक्षी, सूर्य, भाजन और आसन आदि पदार्थ दुख के कारण हैं। जिन्हें अपनाने से जरा भी सुख नहीं मिलता। उन्हें यह सुख के कारण मानता है। अपने मान रात दिन उनको प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता रहता है । ५. ॐ ह्रीं सूर्यपात्रभृत्यारिहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चैतन्यभास्करस्वरूपोऽहम् । बुद्धि शून्य मनुष्य की क्या समझदारी जानिये । क्षेत्र रथ गृह राज्य वैभव आदि दुखमय मानिये ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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