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________________ २९५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान बाह्य द्रव्य का अवलंबन ले जो होता है आत्म विमुख । वह न कभी भी हो सकता है निज स्वरूप के भी सन्मुख ॥ शुद्ध चिद्रूप नहीं जानते हैं जो प्राणी । जाएं पर भव में भी तो संग ले जाते प्राणी ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१९॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्यं नि. । (२०) तथा कुरु सदीभ्यासं शुद्धचिद्रूपचिन्तने । संक्लेशे मरणे चापि तद्विनाशं यथैति न ॥२०॥ २०. ॐ ह्रीं मरणरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चिदभृतस्वरूपोऽहम् । शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का ही तुम प्रयास करो । संग ले जओगे परभव में ये विश्वास करो ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥२०॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्यं नि. । (२१) वदन्नन्यै र्हसन् गच्छन पाठयन्नागमं पठन् । आसनं शयनं कुर्वन शोचनं रोदनं भयम् ॥२१॥ अर्थ- जो मनुष्य बुद्धिमान हैं। यथार्थ में शुद्धचिद्रूप के स्वरूप के जानकार हैं। वे कर्मो के फंदे में फंसकर बोलते हंसते, चलते, आगम का पढ़ाते, पढ़ते बैठते सोते, शोक करते, रोते, डरते, खाते, पीते, और क्रोध लोभ आदि को भी करते हुए क्षणभर के लिए भी शुद्धचिद्रूप के स्वरूप से विचलित नहीं होते। प्रतिक्षण वे शुद्धचिद्रूप का ही चिन्तवन करते रहते हैं । २१-२२ २१. ॐ ह्रीं आसनशयनशोचनरोदनादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्मलबोधामृतस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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