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________________ २८९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान निर्मल शुद्धलिंग जिनपाकर उसे भ्रष्ट मत कर देना । पंच महाव्रत धारे है तो उन्हें नष्ट मत कर देना ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥९॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्यं नि. । (१०) यथा वलाहकवृष्टेर्जायंते हरितांकुराः । तथा मुक्ति प्रदो धर्मः शुद्धचिद्रूपचिंतनात् ॥१०॥ अर्थ- जिस प्रकार मेघ से भूमि के अन्दर हरे हरे अंकुर उत्पन्न होते हैं । उसी प्रकार शुद्धचिद्रूप के चिंतवन करने से मुक्ति प्रदान करने वाला धर्म भी उत्पन्न होता है। अर्थात् शुद्धचिद्रूप के ध्यान से अनुपम धर्म की प्राप्ति होती है। और उसकी सहायता से जीव मोक्ष सुख का अनुभव करते हैं ।, १०. ॐ ह्रीं मुक्तिप्रदधर्मविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | स्वानन्दोऽहम् | जिस तरह मेघ जल से ऊगते सदा अंकुर । त्यों ही चिद्रूप चिन्तवन से धर्म हो सुखकर ॥ शुद्ध चिद्रूप ध्यान से ही धर्म होता है । जीव को मोक्ष सुख का स्वानुभव ही होता है ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१०॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (११) व्रतानि शास्त्राणि तपांसि निर्जने, निवासमंतर्बहि: संगमोचनम् । मौनं क्षमातापनयोगधारणं चिच्चिन्तयामा कलयन् शिवं श्रयेत्॥११॥ अर्थ- जो विद्वान पुरुष शुद्धचिद्रूप के चिंतवन के साथ व्रतों का आचरण करता है। शास्त्रों का स्वाध्याय तप का आराधन, निर्जन वन में निवास, बाह्य आभ्यन्तर, परिग्रह का त्याग मौन, क्षमा, और आतापन योग धारण करता है। उसे ही मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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