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________________ २७१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जिसने भी आत्मा को जान लिया पहिली बार । उसने ही प्राप्त किया शुद्ध ज्ञान का आगार || परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥११॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१२) गृही यति नै यो वेत्ति शुद्धचिद्रूपलक्षणम् । सत्य पंचनमस्कारप्रमुखस्मरणं वरम् ॥१२॥ अर्थ- जो गृहस्थ वा मुनि शुद्धचिद्रूप का स्वरूप नहीं जानता, उसके लिये पंचपरमेष्ठी के मंत्रों का स्मरण करना ही कार्यकारी है। उसी से उसका कल्याण हो सकता है । १२. ॐ ह्रीं पञ्चनमस्कारस्मरणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजकारणपरमात्मस्वरूपोऽहम् । चौपायी जो चिद्रूप शुद्ध ना जाने गृहस्थ मुनि को ना पहचाने । करे पंच परमेष्ठी चिन्तन यही कार्यकारी हितकर धन || परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥१२॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१३) संक्लेशस्य विशुद्धेश्च फलं ज्ञात्वा परीक्षाम् । तत्त्यजेत्तां भजत्यंगी योऽत्र मुत्र सुखी स हि ॥१३॥ अर्थ- जो पुरुष संक्लेश और विशुद्ध के फल को परीक्षापूर्वक जानकर, संक्लेश को छोड़ता है और विशुद्धि का सेवन करता है। उस मनुष्य को इस लोक और परलोक दोनों लोकों में सुख मिलता है । १३. ॐ ह्रीं संक्लेशविशुद्धिफलपरीक्षणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | निर्विकल्पानन्दस्वरूपोऽहम् । चौपायी जो नर फल संक्लेश जानता जो विशुद्धि का फल पिछानता। वह संक्लेश भाव को तजता विशुद्धि का ही सेवन करता॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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