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________________ २५६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वादशम अध्याय पूजन अंतर रूप समझ में आते ही तू समकित पाएगा । 'भेदज्ञान की निधि पाएगा अपने घर में आएगा ॥ नय से चारित्र समझना चाहिये । १९. ॐ ह्रीं परद्रव्यस्मरणरहितचिद्रूपाय नमः । निजगुणमन्दिरोऽहम् | ज्ञान दर्शन स्वबल से निश्चलित हो चिद्रूप में । विस्मरण पर का करे चारित्र शुद्ध स्वरूप में ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१९॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (२०) रत्नत्रयं किल ज्ञेयं व्यवहारं तु साधनम् । सद्भिश्च निश्चयं साध्यं मुनीनां सद्विभूषणम् ॥२०॥ अर्थ- निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति में व्यवहार रत्नत्रय साधन (कारण) हैं। और निश्चय रत्नत्रय साध्य है। तथा वह निश्चय रत्नत्रय मुनियों का उत्तम भूषण है । २०. ॐ ह्रीं भूषणरूपनिश्चयरत्नत्रयविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चिदानन्दभूषणस्वरूपोऽहम् । हरिगीता व्यवहार रत्नत्रय सुकारण शुद्ध निश्चय प्राप्ति में । शुद्ध निश्चय रत्नत्रय है साध्य शिवसुख व्याप्ति में ॥ यही निश्चय रत्नत्रय मुनिराज का भूषण महान । यही उत्तम निधि जगत में यही निश्चय जलधियान || अतः रत्नत्रय सृजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥२०॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२१) रत्नत्रयं परं ज्ञेयं व्यवहारं च निश्चयम् । निदानं शुद्धचिद्रूपस्वरूपात्मोपलब्धये ॥२१॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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