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________________ २३५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञानामृत रस धारा का स्वामी है शुद्ध । निर्विकल्प है जल्प विजल्प रहित है ये त्रैलोक्य प्रसिद्ध ॥ अतः तत्व ज्ञानी विरले है जो करते अपना कल्याण । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१४॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१५) आर्यखण्डभवाः केचिद् विरलाः संति तादृशाः । अस्मिन् क्षेत्रे भवा द्वित्रा स्युरद्य न कदापि वा ॥१५॥ अर्थ- परन्तु जो जीव आर्यखण्ड में उत्पन्न हुए हैं, उनमें से भी विरले ही शुद्धचिद्रूप के ध्यानी और व्रतों के पालक होते हैं। तथा इस भरत क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तो इस समय दो तीन ही हैं। अथवा है ही नहीं । १५. ॐ ह्रीं आर्यखण्डोत्पन्नजीवविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजानन्दनिलयस्वरूपोऽहं । ताटंक आर्य खंड में जो उपजें है उनमें भी ज्ञानी विरले । ध्यान शुद्ध चिद्रूप लीन व्रत पालक होते है विरले ॥ अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१५॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । . (१६) अस्मिन् क्षेत्रेऽधुना संति विरला जैनपाक्षिकाः । सम्यक्त्वसहितास्तत्र तत्राणुव्रतधारिणः ॥ १६ ॥ अर्थ- इस क्षेत्र में प्रथम तो इस समय सम्यग्दृष्टि पाक्षिक जैनी विरले ही हैं। यदि वे भी मिल जाय तो अणुव्रतधारी मिलने कठिन हैं। १६. ॐ ह्रीं जैनपाक्षिकादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजानन्तगुणकुलस्वरूपोऽहं । वीरछंद
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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