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________________ १९८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन निरावरण मेरा स्वभाव है कर्म आवरण कर दूं नष्ट | इक शत अड़तालीस प्रकृतियां उत्तर कर दूं पूरी भ्रष्ट ॥ १६. ॐ ह्रीं दीर्घसंसाररहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अनन्तबलस्वरूपो हम् । जब तक आत्मा में महामोह रहता है । तब तक संसार शीघ्र बढ़ता रहता है || चिद्रूप शुद्ध प्रति प्रेम कहाँ से आए । यह मोह भाव में ही तो बहता जाए || चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१६॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञानः तरंगिणीं जिनागममाय अर्घ्य नि. । (१७) अंधे नृत्यं तपोऽज्ञे गदविधिरतुला स्वायुषो वाऽनवसाने । गीतं बाधिर्ययुक्ते वपनमिह यथाऽयप्यूषरे वार्यतृष्णे । स्निग्ध चित्राण्यभव्ये रुचिविधिरनघः कुंकुमं नीलवस्त्रे । नात्ममप्रीतौ तदाख्या भवन्ति किल वृढ़ा निःप्रतीतौ सुमंत्रः ||१७|| अर्थ- जिस प्रकार अंधे के सामने नाच अज्ञानी का तप आयु के अंत में औषध का प्रयोग बहिरे के आगे गीतों का गाना, ऊसर भूमि में अन्न का बोना बिन प्यासे मनुष्य के लिये जल देना, चिकने पर चित्र का खींचना, अभव्य को धर्म की रुचि कहना, काले कपड़े पर केसरिया रंग और प्रति रहित पुरुष के लिये मंत्र प्रयोग करना कार्यकारी नहीं । उसी प्रकार जिसका आत्मा पर प्रेम नहीं उस मनुष्य को आत्मा के ध्यान करने का उपदेश भी कार्यकारी नहीं, सब व्यर्थ है । १७. ॐ ह्रीं अज्ञानतादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञाननिलयस्वरूपोऽहम् । अंधे को नृत्य तथा तप अज्ञानी को । औषधि प्रयोग मरणादि समय प्राणी को ||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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